बुरा क्यों मैं देखन चला

लाईने तो पुरानी भी ठीक थीं और इतनी ठीक थीं कि इन पर लोगों ने भरपूर किताबें लिखीं। कभी-कभी जिन चीजों का अर्थ जल्दी समझ में आ जाता है वो काम की नहीं रह जातीं। आदमी का भी यही हाल है जो आदमी समझ में आ जाये वो काम का नहीं - सीधा, झल्ला, पगला, गेला...अन्यान्य सम्बोधनों से टाल दिया जाता है। कौए-लोमड़ी सा तिकड़मी, घाघ, चालू, चलता पुर्जा, स्मार्ट, ऐसे शब्दों को अर्थ देने वाले व्यक्तित्व ही आदमी कहलाते हैं।
तो लाइने ये थीं -

बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय।
जो दिल देखा आपना मुझसे बुरा न कोय।।

इन पंक्तियों का सीधा अर्थ जो भी हो, निकाला ये जाने लगा कि मैं बुरा देखने निकला तो मुझे कोई भी बुरा न मिला लेकिन अंदर झांका तो मुझमें ही सारी बुराईयां थीं।
ईसाइयों के चर्चाें में लोग कन्फेशन यानि स्वीकारीकरण करते हैं, यानि व्यवस्था ये कि यदि पाप किया है तो इस बात को स्वीकार कर लो। तद्-भांति एक व्यवस्था जैनों में भी है वो साल में एक बार क्षमा-दिवस मनाते हैं। मैंने एक विज्ञापन एजेंसी में अपनी सेवाएं दी, दुकान मालिक जैन थे वो क्षमा दिवस के दिन एक बड़ा- सा विज्ञापन अखबारों में प्रकाशित करवाते थे, जिसमें ये लिखा होता था कि चाहे-अनचाहे हुई गलतियों/पापों के लिए वे क्षमा माँगते हैं। यह विज्ञापन साल दर साल हर साल छपता था। यानि ये निश्चित था कि जब जब उन्होंने विज्ञापन छपवाया, पक्के तौर पर पाप किया होगा। ये विज्ञापन अखबारों वाले इसलिए छापते थे क्योंकि वो जानते थे कि विज्ञापन एजेंसी के मालिक का ‘क्षमा माँगने का विज्ञापन’ न छापना कितना अक्षम्य हो सकता है, अन्य कमाऊ विज्ञापन नहीं मिलेंगे।
मुझे ये कन्फेशन और क्षमा माँगना एक पाप के भार से मुक्त होने और अन्य के लिए प्रशस्त होने का चरण बन जाता दिखा। पाप किया इससे निपटने की विधि स्वरूप क्षमा मांगी। इससे हुआ ये कि आपने पाप की कांेपले छांट दी। पूरा दरख्त और शाखाएं हरियाए हुए मजे से झूमते रहे।
कुछ लोग अपने बारे में ही कि वे इतने बुरे कि उन्होंने ये किया ....ये किया और वो किया ......जो नहीं किया वो भी गिना देंगे। लेकिन इस स्वीकारीकरण का फल ये नहीं निकलता कि वे उन दोषों से दूर हो जाते हैं जिनको वे स्वीकार कर रहे हैं। इस स्वीकारीकरण से वे उन्हीं दोषों से दूर होने ...उन दोषो से निवृत्त होने को एक प्रक्रिया बनाते हुए, टालते हुए लगते हैं।
मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद प्रत्येक भाषा में दिये शब्दों के नये अर्थ किये जाना, पालन करने वाले परमात्मा का परमगुण है। इस दोहे का अर्थ है कि बुराई देखने की वृत्ति एक भारी बुराई है न कि.. ये कि मैं सबसे बुरा हूं, मुझसे पंगा लेकर तो देखो... मुझसे बुरा कोई नहीं (धमकाने वाले अंदाज में)। एक सफल बलात्कारी के ये कहने का क्या अर्थ कि जिस लड़की से उससे कुकर्म किया, उससे शादी कर लेगा।
कुछ अन्य सकारात्मकता से देखने के हितैषी लोग कहते हैं ‘पाॅजीटिव थिंकिंर बनो‘। आटा चक्की पर काम करने वाला रामलाल बहुत ही पाॅजीटिव मांइड था और नो मांइड मेडिटेशन में पारंगत। नेवर मांइड का मंत्र उसे सिद्ध था। वो ऐसे कि उसका मालिक कलिमलदास सुबह से सांझ तक उसे माँ, बहन और अन्यान्य गालियो से धन्य करता रहता था, पर रामलाल के कान पर जूं नहीं रेंगती वो कहता गालियों के अर्थ मेरी नजर से देखो- माॅदर चो यानि पिता, बहन .... यानि जीजा, बेटी... यानि दामाद। अर्थात् कलिमलदास गालियों के माध्यम से अपने रिश्तेदारों को याद करता है, पुरानी आदत है।



जे कृष्णमूर्ति कहते हैं कि ‘क्या’ और ‘क्यों’ को भलीभांति देख लेने पर, ‘कैसे’ की समस्या नहीं रहती। आप ने यह देखा कि ‘आपका बुरा देखना, एक बुराई है’ तो उसके बाद देखना चाहिए कि ऐसा क्यों है, मुझसे बुरा क्यों हो रहा है, मैं क्यों बुरा देख रहा हूं, बुराई क्यों है... इस तरह देखने पर सारा परिदृश्य साफ हो जाता है, साफ करना नहीं पड़ता। आपने देखा कि बुरा क्या है, क्यों है... एक समझ आती है और बुरा करने की वृत्ति और मूल कारण तुरंत विदा हो जाते हैं।

अगर आप पाप करने और उसके बाद पश्चाताप करने की कहानी में यकीन करते हैं तो आप निश्चित ही उलझन में हैं। क्योंकि असली पश्चाताप यह है कि वो अब वो पाप अपने आप ही आपसे न हो। अगर आप इतनी सरलता से नहीं देख रहें हैं तो अवश्य ही आपका मन कोई न कोई कलाबाजी कर आपको ही उल्लू बना रहा है, आप अपने से ही छल कर रहे हैं।

कुछ नहीं सूझता


कुछ नहीं सूझता

लोगों से सुना है
आदमी हवा से पैदा नहीं होता
तो जरूर रहे होंगे
इस जिस्म को आकार देने वाले भी

पर अब
जबकि वो भी नहीं रहा
जिसने मेरे जिस्म को
7 वर्ष तक पाला
भूख-बीमारियों में संभाला
कुछ नहीं सूझता
?
रोज आसमान पर चढ़, सूरज डराता है
रोज पंजों में भींच लेती रात, कंपा जाती है

लाखें इंसानों की भीड़ में
कोई भी नहीं है जिससे उम्मीद कर सकूं
बता सकूं
अबूझ सा.... इन सांसों का चलना

बस निपट अकेला मेरा होना
और जाने क्या?
क्या ये दुख है?
और क्या हैं ये सिसकियाँ
क्यों अकेला छोड़ दिया गया है मुझे
सूनी वीरान जगहों ...जंगलों के बीच

क्यों जीना है मुझे इसी तरह?
कब तक?

हैरान हूँ अपनी साँसों पर
अभी तो कुछ भी नहीं जानता
कि किससे मिलना है कैसे
क्या बोलना है किससे
किसकी क्या सुननी है
अभी तो मेरे होठों के पास
बहुत से खयाल जाहिर करने के लिए
कोई इशारा नहीं है

मेरा होना क्या है?
मेरा होना क्यों है?

कुछ नहीं सूझता

फर्क तो पड़ता है

फर्क तो पड़ता है

हो सकता है जीते हुए हमें
निरे आदमियों के बीच रहना पड़े

हो सकता है हम सांसें लें
इंसानों के बीच

हो सकता है हम
बेहतर इंसानों के बीच रहें
जरा-सा..खुद की तरफ.. या,
खुदा की तरफ भी बढ़ें

फर्क तो पड़ता है

आदमियों को भी,
इंसानों को भी,
बेहतर इंसानों को भी,
और खुद हमें भी


कबीरे ने कहा था
कि मेरे मरने पर
मोहल्ले वाले तेरहवीं तक मुझे याद रखेंगें या, मृत्युभोज तक
बीवी कुछ बरस...और
माँ-पिता कुछ बरस और

पर यदि मैं जिंदा रहूं
तो फर्क तो पड़ता है
उन्हें भी,
मुझे भी...


फर्क तो पड़ता है
मैं सांसें खुलकर और आसानी से ले सकता हूँ
गीत भी गुनगुना सकता हँू
देख सकता हूं
पहरों का बीतना बातों ही बातों में
काली रातों को गुजार सकता हूं
चांदनी के झांसे में
कल...
आने वाली सुबह का इंतजार भी कर सकता हूं...मस्ती में
बेशक उम्र से दिन-दिन
पत्ते पत्ते सा झड़ता है

फर्क तो पड़ता है...
मेरे हर रिश्ते को
यदि मेरे पास खुशी होगी
तो कहां नहीं पहुंचेगी उसकी खुशबू

और मेरा दुख
कितना मुझ तक रह पाएगा
सड़ांध को कहां छिपा लूंगा मैं

फर्क तो पड़ता है
कुछ मिला हुआ खो जाए तो
लाख ...बहुत कुछ मिल जाने पर भी

क्योंकि वो एक बार ही बनाता है
तुम्हें भी,
मुझे भी, किसी को भी

तो...फर्क तो पड़ता है
किसी के नहीं जाने पर
किसी के चले जाने पर

ये खुजली अगर मिट भी जाये तो क्या है

अज़ीब सी खुजली है ब्लाॅगिंग भी - कभी तो लगता है न पैसे न यश। एक झूठी-सी अयथार्थ दुनिया। क्या पता कौन सच्चा है कौन झूठा। कौन औरत है जो आदमी के नाम से ब्लाॅगिंग कर रही है और कौन आदमी है जो औरत की फोटो चिपका कर कमेंट्स के मज़े ले रहा है। दो-महिला पुरूषों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। एक महिला के घर 5-10 वर्ष पुरानी पत्र पत्रिकाओं का भंडार है। कुछ ऐसी मरी पत्र पत्रिकाओं का भी जो अब जिंदा नहीं रहीं। पर आधुनिक कहानियां कविताएं कही जाने वाली सामग्री अपनी शाश्वतता के मामले में ऐसी हैं कि वो तब भी उतनी ही प्रभावी थी जितनी पैदा होते समय और अब मरने के बाद भी उतनी ही प्रभावी हैं यानि जो आधुनिक-कला-रसिक मार्डन आर्ट प्रेमी देखे पढ़े, वो तो प्रभावित होता ही है। ये अलग बात है जिनके एंटीने कैच नहीं करते वो नाक भौं सिकौड़ कर निकल लेते हैं, कमेंट नहीं करते। तो ऐसी सामग्री भी ब्लाॅग्स में खपा दी जाती है।

कुछ ब्लाॅगकर्ता ताजी सब्जियों को ही विभिन्न मसालों में परोसते हैं उनके विषय तो सामयिक ही होते हैं, सामयिक में तत्कालिक से लेकर माह से छः माह पुराने विषय भी आ जाते हैं। अब ”सामयिक“ शब्द के अर्थ की ऐसी तैसी हो तो उनकी बला से।

फिर कुछ ब्लाॅगपुरूष ऐसे हैं जो तत्कालिक मुद्दों पर नजर रखते हैं और चुन-चुन कर पिछले इतिहास और अगले भविष्य को दृष्टिगत रखते हुए ब्लाॅग सामग्री प्रस्तुत करते हैं ऐसे विद्वजनों से ही ब्लाॅग्स जगत की महिमा है।

पर शाश्वत ब्लाॅग-पितृ-पुरूषों का तो कहना ही क्या। ये ब्लाॅग पितामह ऐसे व्यक्तित्व हैं जो शाश्वत और मौलिक सामग्री के जन्मदाता होते हैं। इनकी पंक्तियां पढ़ के आनंद आ जाता है और जब भी ये सामग्री देखो.... आता ही रहता है। निश्चित ही ऐसे महानुभावों का आदर भी होना चाहिए। इन दुर्लभजनों की खोज में ही हम विभिन्न ब्लाॅग्स पटलों पर जाते हैं इनसे लिंक्स बैठाने में मजा आता है।

हमारा विषय था ब्लाॅगिंग की ये खुजली पैदा होने का। ब्लाॅगिंग की ये खुजली तब पैदा होती है जब हम विभिन्न ब्लाॅग्स पर तड़क भड़क वाले लेआउट्स में घटिया सामग्री और सरल सादे कलेवर में मजेदार सामग्री का खजाना देखते हैं। जी करता है अपन भी सिर आजमा लें। पर कौन सी बढ़िया चीज है जो पैदा होने में 9 महीने का समय नहीं लेती और देखिये उसके बाद भी आदमी की शक्ल में क्या-क्या पैदा हो जाता है। तो खुजली पैदा हो जाती है कि ब्लाॅग तैयार करें कुछ नया पेश करें। कुछ नया यूं ही पैदा नहीं हो जाता। दिन भर के कार्यालयीन काम काज से निपटे रात को थककर डेस्कटाॅप पर बैठे लोग क्या लिखेंगे अन्य लोगों के ब्लाॅग देख देख कर ही नींद आ जाती.. और सुबह हो जाती है। लेकिन कभी कभी सभी को लगता है कि हम उस कम्बख्त से तो बेहतर ही लिख सकते थे जिसे फालतू के विषय में ढेरों चिप्पियां मिलीं। चिप्पियां शब्द चुम्मियां शब्द के निकट का है। ऐसे लगता है किसी ने चूमा।
तो खुजली का मजा ये कमेंट्स हैं। कमेंट्स की तलाश में ब्लाॅगकर्ता पैदा होते हैं ओर उनसे ब्लाॅग। जे कृष्णमूर्ति कहते हैं -ब्लाॅगकर्ता ही ब्लाॅग है। ये फिलासफी ये कहती है कि आप जो पैदा कर रहे हैं आप वही हैं यानि अगर आपसे कुछ श्रेष्ठ निकल रहा है तो श्रेष्ठ और घटिया निकल रहा है तो शक की गंुजाइश नहीं। यदि आप यथार्थ को स्वीकार कर लेते हैं तो ही रूपांतरण संभव है।
पर खुजाल अपनी संभावनाएं तलाश कर ही लेती है। सर्वश्रेष्ठ का पहुंचा उसे अपने हाथ में नजर आता है और निकृष्ट की चोटी खींच पटक देने का बल भी उसके पास होता है। अलग बात है कि अंगूर खट्टे हो जाते हैं।
खराश को मेहनत करने में नहीं, छीलने में नहीं हल्का-हल्का सहलाने में मजा आता है। तो ब्लाॅगकर्ता को कभी नहीं लगता कि ब्लाॅगिंग को पूर्णकालिक कर्म बनाना चाहिये। आॅफिस में टाइम मिलने पर, कभी कभार पवित्रदिवस (संडे) को घर में ब्लाॅग पर कुछ अपलोड कर दिया तो कर दिया।
लेकिन ब्लाॅग-पितामह खराशातीत होते हैं। उनका बिग बी जैसा पूर्णकालिक कर्म होता है ब्लाॅगिंग। कुछ अन्य इस हेतु मानवीय कर्मचारी भी नियुक्त कर देते हैं। हल्का-हल्का या गहराई से खुजलने, सहलाने, मलहम लगाने, खुजाल स्थलों को सूखा छोड़ देने, अन्य लोगों की खाल निकाल कर ओड़ लेने में माहिर ब्लाॅगकर्ता भी अवतरित हो चुके हैं।
विगत वर्षों में ब्लाॅगकर्म ने तेजी से हाथ पैर और सारा शरीर ही पसार लिया है। वेबसाइट्स की असामथ्र्य या मुफ्त की, प्रयोग में सरल साइट्स की तरह ब्लाॅग्स के फायदों के कारण भारतीय साहित्य अनुरागियों ने अपूर्व रूप से इस नये नये जने क्षेत्र के मजे लिये हैं। पहले जो साहित्यानुरागी अपनी छपास को पत्र पत्रिकाओं से नहीं पूरा कर पाते थे उन्होंने भी अब ब्लाॅग्स का आश्रय लिया है। चिप्पियांे के रूप में कोई सहलाये या न सहलाये, खुजाल को जाहिर कर देने का आनंद तो मिलता ही है। वैसे भी ये इंटरनेट जगत कागज के फूलों सा है और हम फिर संभावनाएं पैदा कर लेंगे.........ये खुजली अगर मिट भी जाये तो क्या है।

जितनी निकल गई है उसकी छोड़ो

चलो
जितनी निकल गई है
उसकी छोड़ो
अब...........
अब से...
हर जाती सांस को मजे से जियो
दो, जो चाहते हो
प्यार!

कौन नहीं
दिल से........इच्छाओं से
बेबस
कौन नहीं लाचार

कौन नहीं चाहता
कि सब मिल जाए
अपना कहलाये
नहीं, बस चार दिनों के लिए नहीं
उधार

कौन नहीं चाहता
कि दुनिया पर राज करे
या सारी दुनिया उससे प्यार करे
यही तो है सार

कौन नहीं चाहता
कि जब वो निकले सरे बाजार
मिलें कदम-कदम दोस्त यार
असली या नकली
करें प्यार का इजहार


कौन नहीं चाहता कि
जी हल्का करने के लिए
मँहगी शराब की बोतल के साथ
एक अदद दोस्त भी हो
जो सारे गमों की महंगाई को
सहानुभूति के दो लफ्जों से मिटा दे

सिखा दे
कि मैं अकेला कभी भी नहीं हूं
कहीं भी नहीं नहीं हूं
न जंगलों रेगिस्तानों में भूखा मरता हुआ
न अत्याधुनिक आई सी यू में
नोटों से खरीदे साजो सामान में
सांस-सांस गिनता हुआ

बरस जा बादल

बरस जा बादल
सूरज की आग भरी अंगड़ाई
दुपहरी के तपते तवे को
डूबो दे मिट्टी की खुशबू में
रच जा रूह के नथनों में
कर दे पागल

बरस जा बादल
अब नहीं नहायेगी
सूखे पोखर की दरारों में
कोई अविछिन्नयौवना
न चलायेगी हल
यूं ही यूं ही तरस न बादल

बीज हैं जिंदा
धरती की कब्रों में
बन जल कर दे हल
लहरा जाने दे नभ तक
कोमल कोंपलों का बल

कुओं की गहराई
नदियों के कछार
तालों सागरों का विस्तार
मानव मन भी हार
हुआ है आकुल
बरस जा बादल

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बारिश का इंतजार है

गर्मी बहुत है
बारिश का इंतजार है
रोज शाम बादल गुजरते हैं सिर से
और मैं मुड़ मुड़ के देखता हूं
फिर........फिर से
क्या पता कहां पर
बूंदों का त्यौहार है

सुबह से शाम तक
चमकती घाम से
गहरी काली रात तक
किसी बूंद की आहट नजर नहीं आती
जलाये रखी है अभी तक
उम्मीदों की बाती
क्या पता कहां पर
मेघों का व्यापार है

गर्मी बहुत है
पंखे-कूलर फेल हैं
सांसों के लिए
शरीर जेल है
जिंदगी की गेल में
क्या पता कहां पर
बादल बिजलियाँ बहार है
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अभी तक गर्मी है

ठीक था
फसलों के पकने तक!
पर.....
बहुत दिनों से
गर्मी के बीत जाने की उम्मीदों के बाद भी
अभी तक गर्मी है

अभी तक सिर, गर्दन और छाती
पसीने से तरबतर है
शहर में कहीं भी पानी नहीं दिखता
सिवा मेरे शरीर के
सारे जोड़ों की चिपचिपाहट के

बेहद गर्मी है
अब तो इंतजार रहने लगा है
सुबह से शाम तक
कि कब ये मौसम गुजर जाये

गुजर जाये
सूरज का अस्खलित नारी सा घूरना
अलसुबह से
गहरी काली रात तक

गुजर जाये
मेरे जिस्म का सारा
पानी चूसने के बाद भी अतृप्त
प्यासी नजरों का ताप

गुजर जाये
बादलों का घिरना और उमस बन जाना
हवाओं का लू बनना
और सारी धरती को
पिघला देने की हवस बन जाना

गुजर जायें
कुआंे का सूखापन
पोखरों झीलों नदियों की दरारें
दिमाग को चकराते से
उष्ण लहरों के तीक्ष्ण किनारे

कि बहुत से लोग गुजर गये हैं
भला है गुजर जाये ये मौसम भी

पिता जी

रोज, कोई नया अनुभव
मुझे ये बताता है
कि पिता जी सही थे

रोज, कोई नया अनुभव
मुझे ये बताता है
कि पिता जी की वो मजबूरी थी

रोज, कोई नया अनुभव
मुझे ये बताता है
कि पिता जी वहाँ कमज़ोर पड़ गये थे

रोज कोई नया अनुभव
मुझे मेरे पिता सा बना रहा है

------------------

पिता का मतलब है,
, उम्र की क्लास
, आने वाले वर्षों की बात
, पूर्व चेतावनी
, ना दोहराओ कहानी
, पका होना
, मौत तक न थका होना

Ajnabi ........ Dil Se

ऐ अजनबी तू भी कभी आवाज दे कहीं से
मैं यहां टुकड़ों में जी रहा हूं
तू कहीं टुकड़ों में जी रही है

रोज रोज रेशम सी हवा आते जाते कहती है बता
रेशम सी हवा.... कहती है बता..
वो जो दूध धुली मासूम कली वो है कहां... कहां है?
वो रोशनी कहां है वो चांद सी कहां है
मैं अधूरा तू अधूरी जी रही हैं

ऐ अजनबी तू भी कभी आवाज दे कहीं से
मैं यहां टुकड़ों में जी रहा हूं
तू कहीं टुकड़ों में जी रही है


तू तो नहीं है लेकिन तेरी मुस्कुराहटे हैं
चेहरा कहीं नहीं है पर तेरी आहटे हैं
तू है कहां .. कहां है? तेरा निशां कहां है
मेरा जहां कहां है
मैं अधूरा तू अधूरी जी रही हैं

ऐ अजनबी तू भी कभी आवाज दे कहीं से
मैं यहां टुकड़ों में जी रहा हूं
तू कहीं टुकड़ों में जी रही है

Film : Dil Se

A Ajnabi in 1963

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों

न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिल नवाजी की
न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज नजरों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों में
न जाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज नजरों से
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रूसवाईयां है मेरे माजी की
तुम्हारे साथ भी गुजरी हुई रातों के साये हैं
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों

तार्रूफ रोग हो जाए - तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाए - तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों

फिल्म गुमराह (1963)
Audio Video: http://www.youtube.com/watch?v=cE5q9kst-Zc

A Old Ajnabi Song in new Way

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिल नवाजी की
न तुम मेरी तरफ देखो गलत अंदाज नजरों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों में
न जाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज नजरों से
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराये हैं
मेरे हमराह भी रूसवाईयां है मेरे माजी की
तुम्हारे साथ भी गुजरी हुई रातों के साये हैं
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों

Hear : http://www.youtube.com/watch?v=nLCD9wk4Znw
Original : http://www.youtube.com/watch?v=cE5q9kst-Zc

बीज की संभावनाएं

खुद से ही अजनबी

पूछता हूँ दूजों से
जानना चाहता हूं दूजों से
कि मैं कौन हूं

और मैं ढूंढता हूं
लोगों के जवाबों मेें
कि मैं क्या हूं

मैं खुद से क्यों नहीं मिल लेता
आमने सामने

क्यों मैं बुनता हूं खुद ही
खुद से दुराव-छुपाव

क्यों किये जाते हैं ....
मिलने के लिए
किसी खुदा....
बिचैलियों, ख्यालों, सपनों के बहाने

क्यों हूं मैं,
अपनी ही आशाओं इच्छाओं का गुलाम?

क्यों बांध लिया है
मैंने खुद को
दूजों के छोड़े, दिये रस्सों से
क्यों खरीद ली हैं मैंनंे
अपनी लिये भांति भांति की जंजीरे

क्यों मुझे पता ही नहीं चलतीं
पिंजरे की सीमाएं
क्यों नहीं सूझता
बेड़ियों का भार

क्यों मेरे पंख
वक्त के गुलाम हो गये

क्यों परिधियों, व्यासों, त्रिज्याओं का गणित
मौत तक घसीटे ले जा रहा है

क्या मेरे सारे प्रश्न
दूजों के पढ़े हुए
कृत्रिम हैं
कविता हैं मनोरंजन हैं
खुद से छलावा हैं

या प्रश्नहीन है मेरी चेतना की धरती
आलस्य उन्माद का रेगिस्तान
खा चुका है मुझ बीज की संभावनाएं

Selected Hindi Jokes

तूफान तेज़ी पर था। बडी हवेली की खिडकियां जोर-जोर से खड्खडा रही थी। एक बूडा नौकर मेहमान को शयनकक्ष की तरफ ले जा रहा था। रहस्यमय और भयानक वातावर्ण से डरे हुए मैहमान ने बूडे नौकर से पूछा, क्या इस कमरे मे कोई अप्रत्याशित घटना घटी है?"
"चालीस साल से तो नही।" नौकर ने जवाब दिया।

आशवस्त होते हुए मेहमान ने पूछा, " चालीस साल पहले क्या हुआ था?" बूडे नौकर के आखों मे चमक पैदा हुई और वह फुसफुसाते हुए बोला,

"एक आदमी सारी रात इस कमरे मे ठहरा था और सुबह बिल्कुल ठीक ठाक उठा
..................
सवाल - सरदारजीको कन्फ्यूज कैसे करे ?

जवाब - सिम्पल... उसे एक गोल कमरेमे ले जावो और एक कोने मे बैठनेके लिए कहो.
..................

एक व्यक्ति की अपने तोते से तबियत भर गई। उस ने उसे निलाम किया। बोली १०० रुपये पर छुटी।
खरीददार मुस्करार कहने लगा, "खैर, ले लेता हूं लेकिन इतना बतादें कि यह बोलेगा भी?"

" अजी, यही तो आपके खिलाफ बोली बडा रहा था!"
..................

चंद्रभानजी की पत्नी को मनोवैज्ञानिक ने परामर्श दिया- 'आज रात जब वे शराब पीकर आए, तो उनसे नरमी और प्रेम से पेश आना।

आपका मधुर आचरण ही उनकी लत छुड़ा सकता है।'

रात होने पर चंद्रभानजी लड़खड़ाते हुए घर आए।

पत्नी ने बड़े प्यार से उनका कोट, जूते और मोजे उतारे और बोली- 'डार्लिंग, आओ सो जाएँ।'

चंद्रभानजी ने जरा झूमते हुए कहा- 'हाँ-हाँ,

घर जाकर तो चिड़चिड़ी बीवी की गुर्राहट ही सुननी है।
.........................


रेलगाडी की बर्थ पर संदूक रख कर एक व्यक्ति बैठने लगा तो पास बैठी मोटी महिला बोली, " इसे यहां से हटा लो, कहीं मेरे उपर गिर गया तो?" यात्री लापरवाही से बोला, " कोई बात नही इस मे टूटने वाली कोई चीज नही है।"
..................
पत्‍नी अपने लिए बाज़ार से एक नई ड्रैस लेकर आई तो उस ड्रैस को देखकर पति गुस्से में बोला," यह तुम क्या पारदर्शी ड्रैस उठा लाई हो, इस मे तो आर- पार सब दिखाई देता है।" पत्‍नी मुस्कुराकर बोली, " आप भी बडे भोले हो, भला जब मैं इस ड्रैस को पहन लूंगी तो आर- पार क्या दिखाई देगा?"
..................
एक युवक अपनी प्रेमिका के लिए एक अंगूठी खरीदने के विचार से ज्यूलर के शोरुम मे गया। उसने शोकेस मे रखी अंगुठी के बारे मे पूछा, इस की क्या कीमत है?
पांच हजार रुपए, सेल्जमैन ने बताया।
इतनी अधिक कीमत सुन कर युवक के मुँह से सीटी निकल गई। फिर उसने एक अंगूठी की ओर इशारा करके पूछा, इसकी? दो सीटियां- उत्तर मिला ।
..................
दो दोस्त बाते कर रहे थे, उस मे से पहला बोला, कमाल है शादी के 25 सालो मे तुम्हारा एक बार भी अपनी पत्नी से झगडा नही हुआ, ऐसे कैसे हो सकता है।
दूसरा ऐसा ही है, दरसल शादी के दुसरे ही दिन हमने फैसला कर लिया था कि घर के सभी छोटे-छोटे फैसले वही करेगी और बडेबडे मै।
पहला- अच्छा,क्या इस मे भी कभी झगडा नही हुआ ?
पहला- नही, आज तक कोई बडा फैसला लेने की नौबत ही नही आई
..................
कम्पनी बाग मे कोने की एक बैंच पर बैठे प्रेमी प्रेमिका प्रेम वार्तालाप मे मग्न थे। एकाएक प्रेमिका ने स्वाल कर दिया," रमन सच-सच बताओ कि क्या तुम शादी के बाद भी मुझे इसी तरह प्यार करते रहोगे?" प्रेमी चहक कर बोला, "बल्कि इस से भी ज्यादा क्योकि शादी शुदा स्त्रियां मुझे पहले से ही बहुत पसंद रही है।
..................
मरते समय पति ने अपने पत्नी को सब कुछ सच बताना चाहा । उस ने कहा " मै तुम्हे जीवन भर धोखा देता रहा। सच तो यह है कि दर्जनो औरतों से मेरे नाजायज संबंध थे।"
पत्नी बोली, "मै भी सच बताना चाहूँगी । तुम बीमारी से नही मर रहे मैने तुम्हे धीरे-धीरे असर करने वाला जहर दिया है।
..................

शीषर्क न दो

शीषर्क न दो
रहने दो वर्तमान को वर्तमान
न ढूंढो अतीत, भविष्य में कुछ समान
पियो पल-पल
किलकारियां मारती बहती नदी का जल
न बांधो अकाल को, न तोड़ो
बहती नदी के कूल न मोड़ो
छोड़ो राहों को उनकी राह पर
न पापरत होओ कुछ चाह कर
जियो अनिश्चितता को अज्ञात को
कौंधते सूरज स्याह रात को
न ढूंढो हल
है सच्चा ज्ञान
जो है, उसका वैसा का वैसा भान
पियो हर पल
अमृत मिले की गरल
अकाल में तैरते रहना
कुदरतन है सहज सरल

उम्मीद-ए-जिंदगी

ये जो उम्मीद-ए-जिंदगी है, गहरी जमी है क्या करूं?
समझाया दिल को सब सही है, पर कुछ कमी है, क्या करूं?
चलती सांसें शोर हैं, सब ओर सन्नाटों के शहर
आती नहीं वह भोर, किसका जोर, हाय क्या करूं?
इक झूठ-सा लगता है, रहना जंगलों में ‘सोच’ के
सच्चाईयां जिद पे अड़ीं, मुश्किल बड़ी है क्या करूं?
कहना बुरा सा लगता है पर घुंपा है दिल तक ये छुरा
डर है और धड़कन बढ़ी है, क्या घड़ी है? क्या करूं?

मिलारेपा का एक गीत

सुनो मेरे उदास दोस्त
इकट्ठा हुए कर्ज और सूद को चुकाने के दर्द सा
सबको जाना है मौत तक
यमदूत आते और ले जाते हैं।
जब मृत्यु आती है
अमीर नहीं खरीद सकता जीवन पैसे देकर
योद्धा नहीं रोक सकते तलवार से
न चतुरों की चतुराई ही काम करती है
न सुन्दर महिलाओं का सौन्दर्य ही रोक पाता है मौत का रास्ता
और सारे सीखे सिखाए पढ़े लिखे लोग भी
अपने सारे शब्दजाल और वाकपटुता से
मृत्यु को स्थगित नहीं कर पाते
बद्किस्मत यहां रो भी नहीं पाते
और साहसियों का साहस काम नहीं आता

जब देह में सारी सारी नाड़ियां टूट पड़ती हैं
और दो शिखरों के बीच में टूटता है कुछ
सारी दृश्य और संवेदन क्षमता मंद होती जाती है
सारे पंडे पुजारी और दिव्य लोग अनुपयोगी हो जाते हैं
मरे व्यक्ति से कोई संवाद नहीं कर सकता
सारे सुरक्षा करने वाले प्रहरी और देवता भी छोड़ जाते हैं
सांस पूरी तरह रुक जाने तक
गंध रह जाती है मृत देहतंतुआंे की
जैसे अनघड़ कोयला ठंडी राख में
जब पहुंचता है कोई मृत्यु संधि पर

जब मरते हैं कोई तब भी गिनता है तारीखें और सितारे
कोई रोता चिल्लाता है और गिड़गिड़ाता है
कोई सोचता है सांसारिक अच्छाईयों के बारे में
कोई जीवन भर की अथाह मेहनत से कमाई जायदाद के बारे में
जो अब दूसरे उड़ायेंगे

जबकि गहरा प्यार, और महान करूणा हो तो भी
जाना पड़ता है अकेले ही
सारे अच्छे दोस्त और साथी
बस मृत्यु द्वार तक ही आते हैं छोड़ने
अपने मित्र की देह के गट्ठर के साथ

अच्छी तरह कपड़े में लिपटी ढंकी हुई
देह पानी या आग को समर्पित की जाती है
या सहज ही भूमिगत कर दी जाती है सुनसान इलाके में
ओ मेरे वफादार दोस्ता आखिरकार क्या बचता है?
कल ही जब हमारी सांसे रुक जायेंगी
कोई संपत्ति या जायदाद काम नहीं आयेगी
तो फिर क्यों क्या अर्थ है एक व्यक्ति की जिंदगी का
क्या अर्थ है सगे संबंधियों का
क्या बस मृत्यु शैया के अगल बगल घेरा बनाकर खड़े रहने के लिए
और जब कि कोई भी किसी तरह सहायक हो ही नहीं सकता
जब जानते हैं कि सब छूट जाना है
सब जानते हैं कि सारे रिश्ते नाते बंधन निष्फल हैं
अंत समय आने पर
केवल धर्म साथ देगा

तो क्यों न कोशिश करें
मरने की तैयारी करें
सुनिश्चित हो तैयार रहें
जब समय आये तो कोई भय न रहे
और न ही पछतावा

मानवीय शोचनीय और सोचनीय

शहरी काॅलोनियों में बच्चों के खेलने के लिए मैदान छोड़े जाते हैं। हमारे मोहल्ले में और आसपास के मोहल्लों में भी चैकोर खाली मैदान छूटे हुए हैं। इन्हीं में से एक मैदान में कुछ एक दरख्त लगे हुए हैं और मैदान के किनारों पर सीवेज चेम्बरों से गंदगी निरंतर बहते रहने से मैदान सीवेज मैदान हो गया था। वर्षों सहने के बाद कुछ बाशिंदे वहां के मैदान को कचरे और मिट्टी से भरवाने में सफल हो गये। इसी मैदान में अलसुबह से लेकर रात के झुरमुट तक एक परिवार बिखरा सा दिखता है। प्रौढ़ावस्था से वृद्धावस्था की ओर जाते एक गंदी जनाना और कचरा मर्द और उनका लड़का और लुगाई और अगली पीढ़ी के टंटूगने भी।
सारे परिजन चूंकि सुअरों, कुत्तों और मलमूत्र की संगत में रहते थे इसलिए भरपूर गंदे थे। मैं हालांकि धार्मिक शास्त्रानुसार इंसानों से नफरत नहीं करने की कोशिश करता हूं पर चूंकि वो मानवीय से इतर पशु और पशु से भी अगली अवस्था में प्रवेश को मचलते से दिखते थे सो नफरत का भाव तो जगता ही था।
सुना पिछले सोमवार यानि 2 फरवरी 2009 को मेहतर और मेहतरानी पक्का पिये होंगें। शाम का वक्त था मोहल्ले के अलसेशियन, पामेरियन, डाबरमेन पालकजन अपने पालतुओं को हवा खिलाने और हल्का करने के लिए लेकर घूम फिर रहे थे। महिलाएं भी फालतू की बातों के आश्रय स्थल ढूंढ रहीं थी। बच्चे खेल रहे थे। और मोहल्ले के कुत्ते भी मस्ती में इधर उधर उछल कूद रहे थे। हमारे घर के सामने की छोटी सी सड़क के चैराहे की ओर जाते मोड़ पर एक सीवेज चेम्बर पर मेहतर और मेहतरानी धुत्त अधलेटे बैठे थे। कंदर्प के बाणों से प्रभावित मेहतर के मन में जीवन की निरर्थकता और प्रेम के प्रताप की लहरें हिलोरे ले रही थीं शराब ने इन लहरों को और रंगीन कर दिया। पहले तो दो चेहरों की दुर्गुन्धयुक्त निकटता आलिंगनों में बदली फिर गंदे आलिंगन वीभत्स चुम्बनों से समृद्ध हुए और फिर बात बढ़ते बढ़ते मुद्दे पर आ गई। चरम अवस्था भी पहुंची और सब कुछ खुल्लम खुल्ला सब कुछ चैक चैराहे पर सब कुछ अबाल महिला वृद्ध सबके सामने सम्पन्न हुआ।
पहले पहल तो घटना देखने सुनने वाली ही थी। पर जो इससे मरहूम रह गये उनके लिए घटना शोचनीय, वर्णनीय और आदिरूप से सोचनीय है। कामतंत्र में उतरे मेहतरयुगल के आस पास ही महिलाएं कुत्ते घुमा रही थीं, बच्चे खेल रहे थे। क्या यह प्रश्न उठना चाहिए कि शरीफों के सभ्य मोहल्ले से किसी ने उन्हें भगाया क्यांे नहीं। प्रत्यक्षदर्शियों से ये भी सुना कि मोहल्ले के कुत्तों ने उनके इर्द गिर्द घेरा बना लिया था और घटना को बड़े ही विचित्र भाव से देख रहे थे कुछ बेबस कुत्तों की लार भी टपकती दिखी। मोहल्ले के बच्चे पूछ रहे थे कि इन स्त्री पुरुष में किस प्रकार की और लड़ाई क्यों हो रही है ।
4 फरवरी के अखबार में भारत के किसी शासकीय न्यायालय का निर्णय था कि रेलवे स्टेशन पर पकड़े गये एक प्रेमी युगल द्वारा सार्वजनिक रूप से सवस्त्र प्रेमालाप को अपराध नहीं माना जा सकता।

मिलारेपा का एक गीत

अपने गुरू मारपा के चरणों को नमन करता हूं
और आपके प्रत्युत्तर में एक गीत गाता हूँ।
ध्यानपूर्वक सुनिये मैं जो कहता हँू।

देखने का सर्वोत्तम ढंग है ”अदेखे रहना“
स्वयं मन का, मन की प्रभा को।
सर्वोत्तम है वह ईनाम - जिसकी राह न तकी गई होे,
मन का अपना अनमोल खजाना।

सर्वोत्तम पौष्टिक आहार है - निराहार
जो अतुल्य भोज है समाधि का।
सर्वोपरि तृप्तियुक्त पेय है - अतृप्तता
हार्दिक सहानुभूति का अमृत

ओह! यह आत्मबोध अवधान
शब्द और विवरणातीत है
मन बच्चों की दुनिया नहीं
न ही तार्किकों की

उपलब्धि, लब्धातीत के सत्य की
जहां पहुंच है सर्वोच्च में
देखी ऊंचे और निचले की निःसारता
जब हो घुलनशीलता तक पहुंच

अनआंदोलन के
सर्वोच्च मार्ग का अनुसरण
जन्म और मरण के अंत को जानना
और सर्वोच्च आशय का पूरा होना

कारण के खोखलेपन को देखना है,
परम तर्क की सम्पन्नपूर्णता।
जब आप जानते हैं -
विशाल और छोटे के निराधारता।
तब आप प्रवेश करते हैं परम द्वार में।

अच्छे और बुरे के पार की समझ
परम कुशलता का मार्ग प्रशस्त करती है
द्वैत से विच्छेद का अनुभव
सर्वोच्च दृष्टि को गले लगाना है।

जब आप जानते हैं निःष्प्रयास का सच
आप योग्य हो जाते हैं सर्वोच्च फलन के
अज्ञानी हैं जो इस सच से मरहूम हैं
स्वार्थी गुरू सीखने से फूल कर कुप्पा हैं
शिष्य शब्दजाल में उलझे हैं
योगी पूर्वाधारणाओं से शोषित हैं
मोक्ष की वासना में बुरी तरह फंसे
जन्म जन्म की दासता ही पाते हैं

ये कैसा जादू खास है

उम्मीद बोझ लगती है,
सपना दर्द देता है
सांस सोग लगती है,
आंसू उदास है

क्यों जिंदगी यों ठगती है,
मौत को कौन कर्ज देता है
पी लिये सभी जहर
अभी भी, क्या ये आस है

बुज्दिली मेरी न पूछो
ख्वाहिशें गर्भपात हैं
सब सर्द कर देता है
ये कैसा जादू खास है

गुनाह, आंखें मंूद लेना
अंधेरों की गर्माइश में
कोई ऐसे भी मर्ज सेता है
या मेरा होना कयास है

लफ्जों की सारी साजिशें
मेरी बेहोशी में थी निहां
कब्र तक तो पहुंचा-सा
अब किसका पास है