बुरा क्यों मैं देखन चला

लाईने तो पुरानी भी ठीक थीं और इतनी ठीक थीं कि इन पर लोगों ने भरपूर किताबें लिखीं। कभी-कभी जिन चीजों का अर्थ जल्दी समझ में आ जाता है वो काम की नहीं रह जातीं। आदमी का भी यही हाल है जो आदमी समझ में आ जाये वो काम का नहीं - सीधा, झल्ला, पगला, गेला...अन्यान्य सम्बोधनों से टाल दिया जाता है। कौए-लोमड़ी सा तिकड़मी, घाघ, चालू, चलता पुर्जा, स्मार्ट, ऐसे शब्दों को अर्थ देने वाले व्यक्तित्व ही आदमी कहलाते हैं।
तो लाइने ये थीं -

बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय।
जो दिल देखा आपना मुझसे बुरा न कोय।।

इन पंक्तियों का सीधा अर्थ जो भी हो, निकाला ये जाने लगा कि मैं बुरा देखने निकला तो मुझे कोई भी बुरा न मिला लेकिन अंदर झांका तो मुझमें ही सारी बुराईयां थीं।
ईसाइयों के चर्चाें में लोग कन्फेशन यानि स्वीकारीकरण करते हैं, यानि व्यवस्था ये कि यदि पाप किया है तो इस बात को स्वीकार कर लो। तद्-भांति एक व्यवस्था जैनों में भी है वो साल में एक बार क्षमा-दिवस मनाते हैं। मैंने एक विज्ञापन एजेंसी में अपनी सेवाएं दी, दुकान मालिक जैन थे वो क्षमा दिवस के दिन एक बड़ा- सा विज्ञापन अखबारों में प्रकाशित करवाते थे, जिसमें ये लिखा होता था कि चाहे-अनचाहे हुई गलतियों/पापों के लिए वे क्षमा माँगते हैं। यह विज्ञापन साल दर साल हर साल छपता था। यानि ये निश्चित था कि जब जब उन्होंने विज्ञापन छपवाया, पक्के तौर पर पाप किया होगा। ये विज्ञापन अखबारों वाले इसलिए छापते थे क्योंकि वो जानते थे कि विज्ञापन एजेंसी के मालिक का ‘क्षमा माँगने का विज्ञापन’ न छापना कितना अक्षम्य हो सकता है, अन्य कमाऊ विज्ञापन नहीं मिलेंगे।
मुझे ये कन्फेशन और क्षमा माँगना एक पाप के भार से मुक्त होने और अन्य के लिए प्रशस्त होने का चरण बन जाता दिखा। पाप किया इससे निपटने की विधि स्वरूप क्षमा मांगी। इससे हुआ ये कि आपने पाप की कांेपले छांट दी। पूरा दरख्त और शाखाएं हरियाए हुए मजे से झूमते रहे।
कुछ लोग अपने बारे में ही कि वे इतने बुरे कि उन्होंने ये किया ....ये किया और वो किया ......जो नहीं किया वो भी गिना देंगे। लेकिन इस स्वीकारीकरण का फल ये नहीं निकलता कि वे उन दोषों से दूर हो जाते हैं जिनको वे स्वीकार कर रहे हैं। इस स्वीकारीकरण से वे उन्हीं दोषों से दूर होने ...उन दोषो से निवृत्त होने को एक प्रक्रिया बनाते हुए, टालते हुए लगते हैं।
मनुष्य योनि में जन्म लेने के बाद प्रत्येक भाषा में दिये शब्दों के नये अर्थ किये जाना, पालन करने वाले परमात्मा का परमगुण है। इस दोहे का अर्थ है कि बुराई देखने की वृत्ति एक भारी बुराई है न कि.. ये कि मैं सबसे बुरा हूं, मुझसे पंगा लेकर तो देखो... मुझसे बुरा कोई नहीं (धमकाने वाले अंदाज में)। एक सफल बलात्कारी के ये कहने का क्या अर्थ कि जिस लड़की से उससे कुकर्म किया, उससे शादी कर लेगा।
कुछ अन्य सकारात्मकता से देखने के हितैषी लोग कहते हैं ‘पाॅजीटिव थिंकिंर बनो‘। आटा चक्की पर काम करने वाला रामलाल बहुत ही पाॅजीटिव मांइड था और नो मांइड मेडिटेशन में पारंगत। नेवर मांइड का मंत्र उसे सिद्ध था। वो ऐसे कि उसका मालिक कलिमलदास सुबह से सांझ तक उसे माँ, बहन और अन्यान्य गालियो से धन्य करता रहता था, पर रामलाल के कान पर जूं नहीं रेंगती वो कहता गालियों के अर्थ मेरी नजर से देखो- माॅदर चो यानि पिता, बहन .... यानि जीजा, बेटी... यानि दामाद। अर्थात् कलिमलदास गालियों के माध्यम से अपने रिश्तेदारों को याद करता है, पुरानी आदत है।



जे कृष्णमूर्ति कहते हैं कि ‘क्या’ और ‘क्यों’ को भलीभांति देख लेने पर, ‘कैसे’ की समस्या नहीं रहती। आप ने यह देखा कि ‘आपका बुरा देखना, एक बुराई है’ तो उसके बाद देखना चाहिए कि ऐसा क्यों है, मुझसे बुरा क्यों हो रहा है, मैं क्यों बुरा देख रहा हूं, बुराई क्यों है... इस तरह देखने पर सारा परिदृश्य साफ हो जाता है, साफ करना नहीं पड़ता। आपने देखा कि बुरा क्या है, क्यों है... एक समझ आती है और बुरा करने की वृत्ति और मूल कारण तुरंत विदा हो जाते हैं।

अगर आप पाप करने और उसके बाद पश्चाताप करने की कहानी में यकीन करते हैं तो आप निश्चित ही उलझन में हैं। क्योंकि असली पश्चाताप यह है कि वो अब वो पाप अपने आप ही आपसे न हो। अगर आप इतनी सरलता से नहीं देख रहें हैं तो अवश्य ही आपका मन कोई न कोई कलाबाजी कर आपको ही उल्लू बना रहा है, आप अपने से ही छल कर रहे हैं।

कुछ नहीं सूझता


कुछ नहीं सूझता

लोगों से सुना है
आदमी हवा से पैदा नहीं होता
तो जरूर रहे होंगे
इस जिस्म को आकार देने वाले भी

पर अब
जबकि वो भी नहीं रहा
जिसने मेरे जिस्म को
7 वर्ष तक पाला
भूख-बीमारियों में संभाला
कुछ नहीं सूझता
?
रोज आसमान पर चढ़, सूरज डराता है
रोज पंजों में भींच लेती रात, कंपा जाती है

लाखें इंसानों की भीड़ में
कोई भी नहीं है जिससे उम्मीद कर सकूं
बता सकूं
अबूझ सा.... इन सांसों का चलना

बस निपट अकेला मेरा होना
और जाने क्या?
क्या ये दुख है?
और क्या हैं ये सिसकियाँ
क्यों अकेला छोड़ दिया गया है मुझे
सूनी वीरान जगहों ...जंगलों के बीच

क्यों जीना है मुझे इसी तरह?
कब तक?

हैरान हूँ अपनी साँसों पर
अभी तो कुछ भी नहीं जानता
कि किससे मिलना है कैसे
क्या बोलना है किससे
किसकी क्या सुननी है
अभी तो मेरे होठों के पास
बहुत से खयाल जाहिर करने के लिए
कोई इशारा नहीं है

मेरा होना क्या है?
मेरा होना क्यों है?

कुछ नहीं सूझता