इसलिए नया साल मुबारक

यदि सच
कड़वा लगता हो
तो पढ़ना बंद कर दो
जिंदगी की किताब
...
बात उस समय की है
जब समय नहीं हुआ करता था
सब कुछ पैदा हो गया था
तुम पैदा हो गये थे
बस............ समय नहीं।
...
अब भी बहुत समय तक
पैदाइश के ....बहुत बाद तक
बहुत से लोगों का
समय पैदा नहीं होता
.......
और कुछ लोग
पैदा होते हैं ‘वक्त’ के साथ ही
जनाब!
वक्त और दुख दो चीजें नहीं होते।
..
जब खुशी हो
दिल मंे
तो सारा जहां खुश दिखता है
और पता नहीं चलता वक्त का
...
किन्हीं दुखी दिनों में
किसी शाम को
तुमने जाना था
कि ”वक्त“ जैसी कोई शै होती है
और भूले से ही
अनायास ही
तुमने
सुबह और शामें गिननी शुरू कर दीं।
काटने के लिए दुख को
...
अभी भी
जब तुम टाईम पास कर रहे होते हो
तो काटते हो दुख को
...
और अभी भी
सब कुछ
अपनी मर्जी से ही होता है,
तुम्हारे संकल्प और,
तुम्हारी मर्जी से नहीं।


तुम भी तो कहते हो न -
”वक्त से पहले, वक्त से ज्यादा
किसी को कुछ नहीं मिलता।“

अभी भी, सभी 10 बरस तक बच्चे नहीं रहते
अभी भी, सभी 25 साल की उम्र में जवान नहीं हो जाते
अभी भी सभी 80 साल की उम्र में बूढ़े नहीं होते।

तो समय का तुम्हारी जिन्दगी से
इतना बड़ा रिश्ता नहीं है
जितना तुमने खड़ा कर लिया है।

किसी वक्त नाम की शै की
जरूरत भी क्या है?
...
पर अपने ही दुख से
तुमने ही गिनना शुरू कर दिये थे
पल
पहर
सुबह शाम
दिन - रात
सप्ताह - महीने

तुमने ही बनाया
365 दिनों का एक साल
और तुम्हारे ही हिसाब से
365 दिन रात बीत गये हैं
और तुम ही खुश हो रहे हो
या,
बस आस पास के लोग
मना रहे हैं नये साल के नाम पर कुछ
और इसलिए
तुम भी
...
क्या दुख से ही,
क्या वक्त से ही
तुमने सीखा था
झूठ बोलना
क्योंकि वक्त और झूठ
हमेशा बदलते रहते हैं।
...

और.....
वक्त को जानने के बाद ही
तुमने ‘सब कुछ खुद ब खुद होने को’
‘मैंने किया’ में बदल लिया था
(मैंने किया था, मैं कर रहा हूं, मैं करूंगा)
...
हर पिछले साल के नये दिन भी
तुमने खुदसे कई वादे और संकल्प किये थे
जिसे फिर तुमने कभी भी याद नहीं किया
किसी भी साल के 364 दिनों में
...
तुम्हारी मजबूरी है कि
इतिहास को याद रखना पड़ता है
क्योंकि
तुम कुछ भी नहीं हो
कुल जमा जोड़ भी
अभी तक
...
नये साल के आने पर
तुम क्यों खुश हो
एक साल और कम हो गया है जिन्दगी का
...
पर कुछ भी हो
मैं नहीं चाहता
तुम नाराज हो जाओ - इन सब बातों से,
किसी भी बात से,
इसलिए नया साल मुबारक

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आत्म अवधान की लौ

यदि आपको होश में रहना मुश्किल लगे तो एक प्रयोग करें, दिन भर में अपने मन में आये विचारों और अहसासांे को नोट करें, अपनी प्रतिक्रियाओं जलन, ईष्र्या, दिखावे, विषयासक्ति, आप जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, अपने शब्दों के पीछे जो आशय था और ऐसी ही बातों को नोट करें।
नाश्ते के पहले कुछ समय और रात को सोने से पहले तक की बातें अत्यावश्क रूप से ये सारी बातें नोट करें। ये सब बातें जब तब समय मिले नोट करते चलें और रात को सोने से पहले दिन भर में लिखे हुए को देखें, अध्ययन करें और परीक्षण करें, बिना किसी पूर्व निर्णय, बिना किसी आलोचना या प्रशंसा के, इससे आप अपने छिपे हुए विचारों, अहसासों, ईच्छाओं और अपने शब्दों के अर्थों को खोज पाएंगे।
अब इस अध्ययन में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि जो भी आपने लिखा है अपनी स्वयं की बुद्धिमत्ता समझ से अपनी अवधान अवस्था को देख पायेंगे। इस आत्म अवधान आत्म ज्ञान की लौ में आप अपने द्वंद्वों के कारणों को खोज पाएंगे कारण मिलते ही द्वंद्व विलीन भी हो जाते हैं। आप अपने विचारों अपने अनुमान से एक दो बार नहीं कई दिनों तक विचारों, अहसासों, अपने आशयों प्रतिक्रियाओं को लिखने का सिलसिला जारी रख सकते हैं तब तक जब तक कि आप इनके पैदा होते ही तुरत ही इन्हें देखने की अवधानपूर्ण अवस्था में न आ जाएं।
ध्यान ऐसी ही सतत अवधानपूर्ण अवस्था है आत्मबोध की और आत्म से निरपेक्ष बोध की। ध्यान, सुविचारों से परे की अवस्था है, जहां अक्षोभ प्रशांत विवेक का उदय होता है और इसमें ही सर्वोच्च की धीरता का यथार्थ सामने आता है।

निहायत आदते हैं, वक्त सी बदल जाने की जरूरत है

सदियों की रंजिशों को पल में भुलाने की जरूरत है
इंसानियत के हुनर को फिर से आजमाने की जरूरत है
बहुत हुए काबे में हज, बहुत हुए काशी में बड़े बड़े यज्ञ
हर हिन्दू को काबे में झुकने, हर मुस्लिम को गंगा नहाने की जरूरत है
न उसे ईसाई में बदलो, न बदलो हिन्दु मुस्लिम में
एक इंसान को इंसान सा खिल जाने की जरूरत है
बदलो गुरूद्वारे मंदिरों को, बदल दो मस्जिदों चर्चों को
शहर में लाखों इंसानों को ठिकाने की जरूरत है
हाथ की छोटी बड़ी उंगलियों से कुछ जुदा काम हैं उसके
मन के छोटे झरोखे से कुछ बड़ा दिखाने की जरूरत है
ये जो फर्क से दिखते हैं तेरे मेरे जीने में
निहायत आदते हैं,वक्त सी बदल जाने की जरूरत है

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अपनी आँखों से देखा सुना ही सत्य नहीं होता

राम निरंजन न्यारा रे! अंजन सकल पसारा रे।।
अंजन उत्पत्ति वो ऊँकार। अंजन मांडया सब बिस्तार।।
अंजन ब्रह्मा शंकर इंद्र। अंजन गोपियों संग गोबिन्द।।
अंजन वाणी अंजन वेद। अंजन कीया नाना भेद।।
अंजन विद्या-पाठ-पुराण। अंजन फोकट कथहि ज्ञान।।
अंजन पाती अंजन देव। अंजन की करै अंजन सेव।।
अंजन नाचै अंजन गावे। अंजन भेष अनंत दिखावै।।
अंजन कहौं कहां लग केता। दान पुनि तप तीरथ जेता
कहै कबीर कोई बिरला जागै। अंजन छाड़ि निरंजन लागै।
अंजन आवै अंजन जाई। निरंजन सब घटि रह्यो समाई।।
जोग ध्यान तप सबै बिकार। कहै कबीर मेरे राम आधार।।

आँखों को दिखते दृश्य सा वो सब ओर फैला हुआ है, पर आँखों को न दिखने वाले उस अदृश्य की बातें ही न्यारी हैं। ऊँकार के रूप में उसका ही जन्म है और सारे दृश्य उसी का विस्तार हैं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र और गोपियों के संग नाचता हुआ गोविन्द भी वही है। वह वाणी और वेद ज्ञान के रूप में प्रकट है। और चूंकि वह दिखता है इसलिए ज्ञान कई तरह के भेद भिन्नताओं को पैदा करता है। दृश्य ही वेदपुराणों, पुरानी किताबों, विद्या अध्ययन और नई पुरानी बातों को पढ़सुनकर फोकट में एक दूसरे को प्रभावित करने की कोशिश में लगा है। जो दिख रहा है वही देवता बनाता है और जो दिख रहा है वही अपनी रचनाओं - देवी देवताओं की सेवा करता है। वही नाचता और गाता है और अनन्त अनेकों रूप दिखाता है। दिखने वाला ही पूछता है कि ईश्वर कहां है, ईश्वर की खोज करता है। दिखने वाला ही बार-बार तप तीर्थों में जाकर दान पुण्य कार्यों में लगा रहता है। कबीर जी कहते हैं कि कोई विरला ही जागता है और दिखने वाली बातों को छोड़कर अदृश्य में प्रवृत्त होता है। जो दिखता है वो आता है और चला जाता है। जो नहीं दिखता, अदृश्य है - वो सब में समाया हुआ, न आता है न जाता है। योग ध्यान तप ये सब दोष हैं विकार हैं। और कबीर का वही अदृश्य राम आधार है।


दृश्य दिखने करने वाली बातों से ही आज की हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई वाली समस्याएं पैदा हुई हैं। मुसलमानियत की भी शुरूआत तो यहीं से होती है कि एक आदमी चुपचाप बैठा हुआ अपने अंदर कुछ पा जाता है, साथ वालों को यह कहता है कि बुत परस्त मन बनना। शायद उसकी मंशा हो कि जो दिख रहा है वहीं तक मत रूक जाना। तो बातें अलिखित मौखिक कहीं जाएं या लिखित में दी जाएं, जब गलत आदमी सामने बैठा हो तो गलत चीज ही फैलती हैं। बातों को किताब कुरान बनाया जाता है, जैसे वेद लिखे गये। शब्दों को सजाया जाता है, जैसे देवी देवताओं को सजाते हैं (कुरान की आयतों को सजाते हुए लिखना एक विशिष्ट कला है) मस्जिदों के विशिष्ट वास्तु ढांचे होते हैं, मंदिरों की तरह। यानि फिर वही बुतपरस्ती एक नये रूप में की जाती है। गुरूनानक जी विभिन्न साधु संतों की वाणी को जीवन में मार्गदर्शक बनाने को कहा - तो वाणियों का गान ही शुरू हो गया। एक नई दुकान खुल गई रागी जत्थे बन गये। ग्रंथों की पूजा शुरू हो गई। ग्रन्थ साहिब हो गये हलुए-खीर का भोग गं्रथों को ही लगने लगा। गुरूग्रन्थ साहिब में गुरूनानक ने जितने संतों की वाणियों को एकत्रित किया उसके बाद काम ही रूक गया। क्या उसके बाद साधु संत पैदा होने बंद हो गये? गुरूगं्रथ साहिब एक शैली थी- बुद्धपुरुषों की वाणियों को संकलित करने की। पर फिर सब ठहर गया। बुद्ध और महावीर ने भी मना किया था मूर्ति पूजा के लिए लेकिन जितनी भगवान बुद्ध की मूर्तियां दिखती हैं किसी देवी देवता की नहीं। महावीर की निर्दोष र्निवस्त्रता भी सम्प्रदाय बन गई। मूर्खता ये कि एक महावीर नंगे और एक सफेद कपड़ों में।
आदमी का मन अतीत ही है। तो वो आदमी या अन्य रूपों में नित नूतन नित्य हर क्षण परमात्मा के ताजा नये रूप में हर क्षण खिले पुष्प को देख समझ ही नहीं पाता, या समझना ही नहीं चाहता। समझने में असुविधा ये है कि झुंड के अहंकार का आनंद नहीं मिल पाता। क्योंकि धर्म परमात्मा ईश्वर सर्वप्रथम नितांत वैयक्तिक चीज है अपनी आत्मा की अदृश्यता में फूटी कोंपल सी जो समाज, और धरती ग्रह और सारे ब्रह्माण्ड तक फैलती है।
सम्प्रदाय में तुरंत झंुड की ताकत महसूस होती है एक हिन्दू का अहंकार टूटता है तो सौ हिन्दु इकट्ठा हो जाते हैं एक मुसलमान को गाली दो दंगे हो जाते हैं। तो शक्ति को इस तरह विकृत निकृष्ट रूप में महसूस करने का ढंग हैं सम्प्रदाय, हिन्दू मुस्लिमों के झुण्ड। आदमी अपनी आदिम प्रकृति के अनुसार झुण्डों में रहता है। प्रकृति वही आदिम है पर अब पढ़ा लिखा आदमी है। सब नये तरीके से करता है - हिन्दू संगठन हैं, मुस्लिम संगठन हैं लड़ने मरने के नये हथियार और नयी जगहें हैं शहर हैं। परमाणु बम है। न्यूयार्क की तनी इमारते हैं ताज होटल हैं।
धर्म जीवन की बहती हुई नदी है। लेकिन क्या आदमी कुंए के मेंढ़क सा रहना नहीं चाहता? तो फिर क्यों कुंए बनाता है - एक हिन्दुत्व का कुंआ, एक मुसलमानियत, एक ईसाईओं का कुंआ, एक सिखों का कुंआ। इनमें सब तय होता है कि किसने क्या कह दिया और उसे क्या मानना है। कि कब हंसना है रोना है। कब कौन सी जन्मतिथि या मरण तिथि किस ढंग से मनानी है। कौन से भजन गाने कव्वालियां नये नये अंदाज में गानी हैं और उनके अर्थ समझने की कोशिश कभी नहीं करनी है। तुलसीदास की रामायण को पागलों की तरह चीख-चीख कर गाते शोर फैलाते देखा जा सकता है। प्रतियोगिता होती है कि इतने दोहे इतने घंटों में खत्म कर देने हैं कई माहिर जत्थे हैं। आराम से पवित्र दिन संडे को या किसी भी रात को किसी भी मोहल्ले को वैध ढंग से परेशान किया जा सकता है। हद है दीपावली के पटाखों का धुंआ - अस्थमा के रोगियों को मर जाना चाहिए या हिन्दुस्तान से बाहर चले जाना चाहिए दीपावली के दिन। क्या यही तरक्की है- धुआं रहित पटाखे नहीं बनाये जा सकते, आयुर्वेदिक रंग नहीं बन सकते। होली के रासायनिक रंगो की जलन मुझे साल में एक और दिन घर मंे बंद रहने को कहती है और रंगों के एक त्यौहार में खुश रहने से मरहूम करती है। अब भी मुर्हरम को मातम बनाने, खुल्लम खुला रोना पीटना क्या पागलपन है। जीसस को क्रूस पर चढ़ने में हुए दर्द का पता नहीं पर टीवी पर देखो सुनोे कई आदमी खुद हर साल क्रूस पर चढा़ते हैं, इसमें क्या मजा है? मजा वही है भीड़ आपको, अहंकार को पोषित करती है। आज भी आदिम प्रवृत्तियां काम कर रही हैं। बामियान में बुद्ध की प्रतिमाएं तोड़ दी गईं। अमरीकी सैनिकों ने बंदी ईराकी सैनिकों को कौन सी यातनाएं थीं जो नहीं दी? कौन सा पैशाचिक आनंद उन्होंने नहीं लिया? बुश पर जूता पड़ा और खिसियाहट में छद्म सभ्य वाक्यों से माहौल को हल्का करने की, अपनी आदिम प्रकृति को दबाने की कोशिश की। माहौल तो ऐसे हल्का होता कि बुश अपने अंगरक्षकों को मना कर उस पत्रकार की जूतमपैजार का जवाब खुद उस पर जूते फेंक कर, सहज अपने मुंह से निकली गालियां बक कर देते। इससे ये तो साबित होता कि बुश नाम का एक सरल सहज-सा आदिम मानव तो उनमें जिंदा है, जिसके सभ्य होने की गंुजाइशें हैं। पर पुलसियों से उस पत्रकार की बाहें और अंतड़ियां तुड़वा बुश ने साबित किया कि वो वही आधुनिक युग के आदिम मानव हैं जिसकी बर्बरता युगों के साथ बढ़ती गई है।
धर्मनिरपेक्षता एक निरर्थक शब्द है। सब धर्म सापेक्ष हो रहा है हिन्दू बिल, मुस्लिम बिल, अल्पसंख्यकों के विशेष कानून लिखित में हैं। साम्प्रदायिकता को कानूनसम्मत, लिखित में जोर शोर से बढ़ावा दिया, पाला पोसा जा रहा है। कानूनसम्मत सिमी, विश्वहिन्दू परिषद की तरह सिख, जैन, ईसाई सभी सम्प्रदायों के सभी तरह के सक्रिय संगठन हैं। सर्वधर्म समितियां दंगों के बाद फैले धुंए सी नजर आती हैं। आपका धर्म कुंए का कीचढ़ है और सर्वधर्म का मतलब चार पांच कुओं का कीचढ़ एक कर दो तो क्या वो साबर बन जायेगा, नदी के बहते पानी सा पवित्र हो जायेगा? एक गलती किसी को सदियों तक दबाया कुचला, कमजोर बनाया। दूसरी गलती आरक्षण की बैसाखी दे दी। क्या इससे दबे कुचले लोग अपने पांव पर चलना सीख जायेंगे, ताकतवर हो जायेंगे।

कबीर के निरंजन राम को समझने की बहुत जरूरत है। नितांत वैयक्तिक, धर्म के विशुद्ध अदृश्य रूप को सर्वप्रथम खुद में महसूस करने और उसके अंकुरित-पुष्पित-पल्लवित स्वरूप, उसकी सुगंध को प्रत्येक जड़ चेतन की आत्मा तक ले जाने की जरूरत है। ‘जो दिख रहा है’ उसके सच को ‘जो नहीं दिख रहा’ उसके द्वारा समझने की जरूरत है।
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नकल धर्म - असली धर्म

क्या आप जानते हैं धर्म क्या है? जप तप में, पूजा में या ऐसे ही अन्य रीति-रिवाजों में धर्म नहीं। यह धातु या पत्थर की मूर्तियों की पूजा में भी नहीं, न ही मंदिरों या मस्जिदों या चर्चों में है। यह बाइबिल या गीता पढ़ने या दिव्य/पवित्र कहे जाने वाले नामों को तकिया कलाम बना लेने में भी नहीं है, यह आदमी के अन्य अंधविश्वासों में भी नहीं है। ये सब धर्म नहीं।

धर्म अच्छाई, भलाई, शुभता का अहसास है। प्रेम है जो जीती जागती, भागती दौड़ती नदी की तरह अनन्त सा बह रहा है। इस अवस्था में आप पातें हैं कि एक क्षण ऐसा है जब कोई किसी तरह की खोज बाकी नहीं रही; और खोज का अन्त ही किसी पूर्णतः समग्रतः भिन्न का आरंभ है। ईश्वर, सत्य की खोज, पूरी तरह अच्छा बनना, दयालु बनने की कोशिश, धर्म नहीं। मन की ढंपी-छुपी कूट चालाकियों से परे - किसी संभावना का अहसास, उस अहसास में जीना, वही हो जाना यह असली धर्म है। पर यही तभी संभव है जब आप उस गड्ढे को पूर दें जिसमें आपका ‘अपनापन, अहंकार, आपका ‘कुछ’ भी होना रहता है। इस गड्ढे से बाहर निकल जिंदगी की नदी में उतर जाना धर्म है। जहां जीवन का आपको संभाल लेने का अपना ही विस्मयकारी अंदाज है, क्योंकि आपकी ओर से, आपके मन की ओर से कोई सुरक्षा या संभाल नहीं रही। जीवन जहां चाहे आपको ले चलता है क्योंकि आप उसका खुद का हिस्सा हैं। तब ही सुरक्षा की समस्या का अंत हो जाता है इस बात का भी कि लोग क्या कहेंगे, क्या नहीं कहेंगे और यह जीवन की खूबसूरती है।

जे. कृष्णमूर्ति की सूक्ति का भावार्थ

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आपका विश्वास, ईश्वर नहीं है

एक आदमी जो ईश्वर में विश्वास करता है ईश्वर को नहीं खोज सकता। ईश्वर एक अज्ञात अस्तित्व है, और इतना अज्ञात कि हम ये भी नहीं कह सकते कि उसका अस्तित्व है। यदि आप वाकई किसी चीज को जानते हैं, वास्तविकता के प्रति खुलापन रखते हैं तो उस पर विश्वास नहीं करते, जानना ही काफी है। यदि आप अज्ञात के प्रति खुले हैं तो उसमें विश्वास जैसा कुछ होना अनावश्यक है। विश्वास, आत्म प्रक्षेपण का एक ही एक रूप होता है, और केवल क्षुद्र मन वाले लोग ही ईश्वर में विश्वास करते हैं। आप अपने हीरो लड़ाकू विमान उड़ाने वालों का विश्वास देखिये, जब वो बम गिरा रहे होते हैं तो कहते हैं कि ईश्वर उनके साथ है। तो आप ईश्वर में विश्वास करते हैं जब लोगों पर बम गिरा रहे होते हैं, लोगों का शोषण कर रहे होते हैं। आप ईश्वर में विश्वास करते हैं और जी-तोड़ कोशिश करते हैं कि कहीं से भी किसी भी तरह से अनाप शनाप पैसा आ जाये। आपने भ्रष्टाचार, लूट खसोट से कोहराम मचा रखा है। आप अपने देश की सेना पर अरबों-खरबों रूपये खर्च करते हैं और फिर आप कहते हैं कि आप में दया, सद्भाव है, दयालुता है, आप अहिंसा के पुजारी हैं। तो जब तक विश्वास है, अज्ञात के लिए कोई स्थान नहीं। वैसे भी आप अज्ञात के बारे में सोच नहीं सकते, क्योंकि अज्ञात तक विचारों की पहुंच नहीं होती। आपका मन अतीत से जन्मा है, वो कल का परिणाम है - क्या ऐसा बासा मन अज्ञात के प्रति खुला हो सकता है। आपका मन, बासेपन का ही पर्याय है - बासापन ही है। यह केवल एक छवि प्रक्षेपित कर सकता है, लेकिन प्रक्षेपण कभी भी यथार्थ वास्तविकता नहीं होता। इसलिए विश्वास करने वालों का ईश्वर वास्तविक ईश्वर नहीं है बल्कि ये उनके अपने मन का प्रक्षेपण है। उनके मन द्वारा स्वान्तःसुखाय गढ़ी गई एक छवि है, रचना है। यहां वास्तविकता यथार्थ को जानना समझना तभी हो सकता है जब मन खुद की गतिविधियों प्रक्रियाओं के बारे में समझ कर, एक अंत समाप्ति पर आ पहुंचे। जब मन पूर्णतः खाली हो जाता है तभी वह अज्ञात को ग्रहण करने योग्य हो पाता है। मन तब तक खाली नहीं हो सकता जब तक वो संबंधों की सामग्री सबंधों के संजाल को नहीं समझता। जब तक वह धन संपत्ति और लोगों से संबंधों की खुद की प्रकृति नहीं समझ लेता और सारे संसार से यथार्थ वास्तविक संबंध नहीं स्थापित कर लेता। जब तक वो संबंधों की संपूर्ण प्रक्रिया, संबंधों में द्वंद्वात्मकता, रिश्तों के पचड़े नहीं समझ लेता मन मुक्त नहीं हो सकता। केवल तब, जब मन पूर्णतः निस्तब्ध शांत पूर्णतया निष्क्रिय निरूद्यम होता है, प्रक्षेपण करना छोड़ देता है, जब वह कुछ भी खोज नहीं रहा होता और बिल्कुल अचल ठहरा होता है तभी वह पूर्ण आंतरिक और कालातीत अस्तित्व में आता है।

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घबराहट

क्यों वक्त में इतना रचा हूं
कि खुद से पूछता हूं
कितना खर्च कितना बचा हूं

बीती यादें बन गई है
आती वादे बन गई है
जिन्दगी क्या हो गई है
कितना गर्क कितना उठा हूं

क्या होश की दवा है इतनी मुश्किल
कि उम्रों तक नींद सपने ही मुमकिन
कुछ नहीं होता महसूस देह बिन
पहले ही कदम मैं इतना थका हूं

मौत की दस्तक है हर पल
डराता है आता जाता कल
धड़कन कहती उबल उबल
बस अब टपका, इतना पका हूं

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उसकी बात

सबसे खूबसूरत कौन है?
कौन है जिसकी आवाज मीलों दूर तक जाती है
बिना थकावट के

कौन है जिसके आंचल में सिर छुपा
उम्रदराज लोग भी रोते हैं बच्चों की तरह

अकेले बंद कमरे में घबराया सा,
जंगल की घनेपन में,
और आकाश के खुलेपन में,
या पर्वतों की ऊंचाईयों से हतप्रभ
मैं किसकी कल्पना नहीं कर पाता

अजनबियों के चेहरे पर
पहचाना सा क्या होता है
क्या उसे यकीन कहते हैं
जो अजनबी पर किया जाता है

क्या है जो मुझे अधिकार देता है
कि किसी भी राह चलते शख्स से
मैं कह दूं अपना दर्द

नन्हें से पौधे का आकाश की तरफ देखना
दरख्तों का बाहें फैला पुकारना
नदियों का आवारापन
गिरिशिखरों की बादलों से बातचीत

क्या है जो
मैं बार बार कहना चाहता हूं
और बार बार छूट जाता है
क्या है जो हर कोई समझ लेता है बिन कहे
क्या है जिसके लिए कहना सुनना खेल है

क्या है जिस पर बेवजह
सांसों के सुर वारे जा सकते हैं

मेरे सभी अजनबी अहसासों को
मेरी नादानियों की मुआफियां पहुंचें
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एक फिल्मी गीत

वो शाम कुछ अजीब थी ये शाम भी अजीब है
वो कल भी पास पास थी वो आज भी करीब है

झुकी हुई निगाह में, कहीं मेरा खयाल था
दबी-दबी हसीं में इक, हसीन सा गुलाल था
मैं सोचता था मेरा नाम गुनगुना रही है वो
मै गाऊं तो लगा मुझे कि मुस्कुरा रही है वो

मेरा खयाल है अभी झुकी हुई निगाह में
खिली हुई हंसी भी है दबी हुई सी चाह में
मैं जानता हूं मेरा नाम गुनगुना रही है वो
यही खयाल है मुझे कि पास आ रही है वो

फिल्म-खामोशी गायक-किशोर

जे कृष्णमूर्ति कि सूक्ति का हिन्दी भाषा अंतरण

धर्म, जैसा की हम सामान्य तौर पर जानते हैं या मानते हैं, मतों - मान्यताओं, रीति रिवाजों परंपराओं, अंधविश्वासों, आदर्शों के पूजन की एक श्रंखला है। आपको आपके हिसाब से तय अंतिम सत्य को ले जाने के लिए मार्गदर्शक गुरूओं के आकर्षण। अंतिम सत्य आपका प्रक्षेपण है, जो कि आप चाहते हैं, जो आपको खुश करता है, जो आपको मृत्यु रहित अवस्था की निश्चितता देता है। तो इन सभी में जकड़ा मन एक धर्म को जन्म देता है, मत-सिद्धांतों का धर्म, पुजारियों द्वारा बनाया गया धर्म, अंधविश्वासों और आदर्शों की पूजा। इन सबमें मन जकड़ जाता है, दिमाग जड़ हो जाता है। क्या यही धर्म है? क्या धर्म केवल विश्वासों की बात है, क्या अन्य लोगों के अनुभवों, ज्ञान, निश्चयों का संग्रह धर्म है? या धर्म केवल नैतिकता भलमनसाहत का अनुसरण करना है? आप जानते हैं कि नैतिकता भलमनसाहत, आचरण से तुलनात्मक रूप से सरल है। आचरण में करना आ जाता है ये करें या न करें, चालाकी आ जाती है। क्योंकि आचरण सरल है इसलिए आप आसानी से एक आचरण पद्धति का अनुसरण कर सकते हैं। नैतिकता के पीछे घात लगाये बैठा स्वार्थ अहं पुष्ट होता रहता है, बढ़ता रहता है, खूंखार रूप से दमन करता हुआ, अपना विस्तार करता रहता है। तो क्या यह धर्म है।

आपको ही खोजना होगा कि सत्य क्या है क्योंकि यही बात है जो महत्व की है। आप अमीर हैं या गरीब, आप खुशहाल वैवाहिक जीवन बिता रहें हैं और आपके बच्चे हैं, ये सब बातें अपने अंजाम पर पहुंचती है, जहां हमेशा मृत्यु हैं। तो विश्वास, अपने मत के किसी भी रूप, पूर्वाग्रह रहित होकर आपको सत्य को जानना होगा। आपको खुद अपने लिए ओज और तेज सहित, खुद पर अवलम्बित हो पहल करनी होगी कि सत्य क्या है?, भगवान क्या है?। मत और आपका विश्वास आपको कुछ नहीं देगा, विश्वास केवल भ्रष्ट करता है, जकड़ता है, अंधेरे में ले जाता है। खुद ही ओज और तेज सहित उठ पहल करने पर ही आत्मनिर्भर, मुक्त हुआ जा सकता है।

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ये जनम

सब का सब दोहराव है
सारा जन्म - सारे जन्म

जरूरी नहीं है
रोज पहरों के लिए
स्कूल जाना 12 - 15 साल तक
पर सभी जा रहे हैं आज तक

जरूरी नहीं है
कि एक अजनबी आदमी, अजनबी औरत से शादी करें
पर अरबों लोग कर रहे हैं खुशी खुशी

जरूरी नहीं कि
बच्चे भी पैदा हों
पर हर मिनट हो रहे हैं लाखों बच्चे

जरूरी नहीं है कि
बरसों तक नौकरी की जाये
8-10-12 घंटे एक आदमी
किसी दूसरे आदमी की चाकरी करे
काम हो या, न हो
किसी ठिये पर टिके घंटों तक
ऊंघता हुआ
टाईम पास करता हुआ
पर दुनियां के कई अरब आदमी ऐसा कर रहे हैं

कितनी बेहूदा और फिजूल सी बातें
कितनी तन्मयता से
जन्मों जन्मों की जाती हैं
मशीन की तरह

और कितनी जरूरी बातें
कि पड़ोसी का हाल चाल पूछ लें
शहर के तालाब में आये
नये पक्षियों की चाल ढाल की सूझ लें
बहुत दिन से गिटार नहीं बजाया, बजा लें
बहुत दिन हुए कोई गीत नहीं गुनगुनाया, गुनगुना लें
बहुत दिन हुए चुपचाप नहीं बैठे
धूप की गरमाहट को महसूस करें लेटे लेटे
मौसी से मिलने नहीं गये कितने बरस से
दोस्त को मिलने को, गये हैं तरस से

बस
संडे के संडे जीते हैं थोड़ा सा
हफ्ते भर का पारा नीचे उतरता है थोड़ा सा
और एक बरस और एक जिन्दगी में
क्या आपको बस रविवार
या छुट्टियों को ही जीना है?
बाकी छः दिन किस मजबूरी में
किसकी जी हुजूरी में गुजारने हैं
क्या इस तरह ही लम्हें संवारने हैं

क्या कामचलाऊ रोटी कपड़े मकान में काम नहीं चल सकता
क्या सांसों का उबलना, सुकून में नहीं ढल सकता
क्या ब्लडप्रेशर, डायबिटीज, दिल की बीमारियों का फैशन है
क्या ये जन्म टेंशन, कैंसर, एड्स का सैशन है
क्या नोट ही जिन्दगी हैं?
क्या स्वार्थ ही बन्दगी है?
क्या नोट बिना आपके व्यक्तित्व में कुछ भी नहीं बचा
क्या नोट की चैंधियाहट से रोम-रोम है रचा पचा
क्या हालात इतने बुरे हैं कि सब तरफ प्रतियोगी-छुरे हैं
क्या दौड़ से हट जाना हार है
क्या दौड़ ही संसार है

......निरंतर... शीघ्र ही

पूरनचंद प्यारेलाल का एक गीत

रब बंदे दी जात इक्को
ज्यों कपड़े दी जात है रूं
कपड़े विच ज्यों रूं है लुकया
यूं बंदे विच तू
आपे बोलें आप बुलावे
आप करे हूँ हूँ

तू माने या न माने दिलदारा
असां ते तेनू रब मनया
दस होर केडा रब दा दवारा
असां ते तेनू रब मनया

अपने मन की राख उड़ाई
तब ये इश्क की मंजिल पाई
मेरी साँसों का बोले इकतारा

तुझ बिन जीना भी क्या जीना
तेरी चैखट मेरा मदीना
कहीं और न सजदा गवारा

हँसदे हँसदे हर गम सहना
राजी तेरी रजा में रहना
तूने मुझको सिखाया ये यारा

अर्थात् परमात्मा ओर आत्मा की एक ही जात है। जैसे कपड़े में रूई छुपी है वैसे ही आत्मा में परमात्मां। वो आप ही कहता है आप ही सुनता है आप ही होने की हामी भी भरता है।
तू माने या न माने हमने तुझे रब/ईश्वर मान लिया है तू ही बता और अब कौन से द्वार पर जायें।
अपने मन को राख की तरह बना उड़ा दिया है तब हमने इश्क की यह मंजिल पाई है मेरे सांसों का इकतारा तेरी ही धुन निकालता है।
हंसते हंसते खुशी गम सहना, तेरी मर्जी की मुताबिक रहना ये तूने ही मुझे सिखा दिया है।

महामना जे. कृष्णमूर्ति जी के आज के उद्धरण का अनुवाद

एक धार्मिक व्यक्ति वो व्यक्ति नहीं जो भगवान को ढूंढ रहा है। धार्मिक आदमी समाज के रूपांतरण से संबद्ध है, जो कि वह स्वयं है। धार्मिक आदमी वो व्यक्ति नहीं जो असंख्य रीति रिवाजों - परंपराओं को मानता/करता है। अतीत की संस्कृति, मुर्दा चीजों में जिंदा रहता है। धार्मिक आदमी वो व्यक्ति नहीं है जो निर्बाध रूप से बिना किसी अंत के गीता या बाईबिल की व्याख्या में लगा हुआ है, या निर्बाध रूप से जप कर रहा है, सन्यास धारण कर रखा है - ये सारे तो वो व्यक्ति हैं जो तथ्य से पलायन कर रहे हैं, भाग रहे हैं। धार्मिक आदमी का संबंध कुल जमा, संपूर्ण रूप से समाज को जो कि वह स्वयं ही है, को समझने वाले व्यक्ति से है। वह समाज से अलग नहीं है। खुद के पूरी तरह, संपूर्ण रूप से रूपांतरण अर्थात् लोभ-अभिलाषाओं, ईष्र्या, महत्वाकांक्षाओं के अवसान द्वारा आमूल-रूपांतरण और इसलिए वह परिस्थितियों पर निर्भर नहीं, यद्यपि वह स्वयं परिस्थितियों का परिणाम है - अर्थात् जो भोजन वह खाता है, जो किताबें वह पढ़ता है, जो फिल्में वह देखने जाता है, जिन धार्मिक प्रपंचों, विश्वासों, रिवाजों और इस तरह के सभी गोरखधंधों में वह लगा है। वह जिम्मेदार है, और क्योंकि वह जिम्मेदार है इसलिए धार्मिक व्यक्ति स्वयं को अनिवार्यतः समझता है, कि वो समाज का उत्पाद है समाज की पैदाईश है जिस समाज को उसने स्वयं बनाया है।इसलिए अगर यथार्थ को खोजना है तो उसे यहीं से शुरू करना होगा। किसी मंदिर में नहीं, किसी छवि से बंधकर नहीं चाहे वो छवि हाथों से गढ़ी हो या दिमाग से। अन्यथा कैसे वह कुछ खोज सकता है जो संूपर्णतः नया है, यथार्थतः एक नयी अवस्था है.
क्या हम खुद में धार्मिक मन की खोज कर सकते हैं। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में वास्तव में वैज्ञानिक होता है। वह अपनी राष्ट्रीयता, अपने भयों डर, अपनी उपलब्धियों से गर्वोन्नत, महत्वाकांक्षाओं और स्थानिक जरूरतों के कारण वैज्ञानिक नहीं होता। प्रयोगशाला में वह केवल खोज कर रहा होता है। पर प्रयोगशाला के बाहर वह एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही होता है अपनी पूर्वअवधारणाओं, महत्वाकांक्षाओं, राष्ट्रीयता, घमंड, ईष्र्याओं और इसी तरह की अन्य बातों सहित। इस तरह के मन की पहुंच ‘धार्मिक मन’ तक कभी नहीं होती। धार्मिक मन किसी प्रभुत्व केन्द्र से संचालित नहीं होता, चाहे उसने पारंपरिक रूप से ज्ञान संचित कर रखा हो, या वह अनुभव हो (जो कि सच में परंपराओं की निरंतरता, शर्तों की निरंतरता ही है।) पंरपरा यानि शर्त, आदत।
धार्मिक सोच, समय के नियमों के मुताबिक नहीं होती, त्वरित परिणाम, त्वरित दुरूस्ती सुधराव सुधार समाज के ढर्रों के भीतर। धार्मिक मन रीति रिवाजी मन नहीं होता वह किसी चर्च-मंदिर-मस्जिद-गं्रथ, किसी समूह, किसी सोच के ढर्रे का अनुगमन नहीं करता।धार्मिक मन वह मन है जो अज्ञात में प्रवेश करता है और आप अज्ञात में नहीं जा सकते, छलांग लगा कर भी नहीं। आप पूरी तरह हिसाब लगाकर बड़ी सावधानीपूर्वक अज्ञात में प्रवेश नहीं कर सकते। धार्मिक मन ही वास्तव में क्रांतिकारी मन होता है, और क्रांतिकारी मन ‘जो है’ उसकी प्रतिक्रिया नहीं होता। धार्मिक मन वास्तव में विस्फोटक ही है, सृजन है। और यहां शब्द ‘सृजन’ उस सृजन की तरह न लें जिस तरह कविता, सजावट, भवन या वास्तुशिल्प, संगीत, काव्य या इस तरह की चीजें। ये सृजन की एक अवस्था में ही हैं।

क्या फर्क है?

क्या फर्क है?
कि एक - सिगरेट न देने पर कोई किसी को छुरा मार दे
और दूसरा -
पानी, तेल, जमीन,
धर्म, सरकार, या किसी भी हवस में
बम धमाके करे - हजारों मरें
आतंक तो है न

क्या फर्क है?
कि कोई चपरासी 10 रू रिश्वत की मांग करे
या कोई मंत्री करोड़ों का टेंडर अपनों के नाम करे
भ्रष्टाचार तो है न

क्या फर्क है?
किसी भी नेता में -
धार्मिक-अधार्मिक, राजनीतिक-आतंकी,
सामाजिक-असामाजिक।
आदमी को मोहरा तो समझते हैं न

जरूरत है सभी जगह
राजनीतिक सामाजिक धार्मिक या कोई भी
कोई भी सांचा हो - तोड़ा जाये
खांचों में फिट होने के लिए नहीं है आदमी

अगर ये आखिरी पल हों

जब
आपको बहुत दिनों से लग रहा हो
कि तबियत आजकल ख़राब रहती है
शायद अब मौत आने ही वाली है

और दो तीन दिन
लगातार ऐसा लगे ---

और फ़िर एक दिन पक्का सा लगे
कि आज आखिरी दिन ही है
तो इस आखिरी दिन
आप अपनी जिन्दगी के आखिरी दिन क्या करेंगे?
जनाब
ज्यादा सोचने की जरूरत नही है


क्योंकि आपने जिन्दगी के बारे में
इतने बरसों तक बहुत ज्यादा नही सोचा
और सोचा भी, तो कुछ नही किया
इन आखिरी दिनों में भी
आपने बस कयास ही लगाए

जिन्दगी को कुछ ख़ास नही दिया
कुछ ख़ास नही किया

जनाब
यदि मौत में और आपमें
अभी भी फासला है
तो क्या आपको
आदतों से आजाद नही होना है
आपको मौत के दिन तक भी
क्या अंदाजे ही लगाने हैं?

आदत अच्छी हो या बुरी
आदत है
अच्छे खासे आदमी को
मशीन बना देती है
और क्या आप मशीन बन कर मरना पसंद करेंगे?

मतदान करना?, नही करना?

मत दान करो
अपना बहुमूल्य मत
कम बुरे आदमी को

आपके मत का मतलब है
कि
उसके हर अच्छे बुरे फैसले में
उसके साथ हैं आप
आने वाले पाँच साल तक

और बुरा आदमी
अगले पाँच सालों में
हजारों गुना बुरा हो सकता है


एक नई आबादी बनाओ
जो हट के है
नेता और जनता
अमीर गरीब
के बँटवारे से

एक ऐसी आबादी
जो रोटी और परमाणु बोम्ब में
प्राथमिकता तय कर सके
कि
क्या उगाना है



एक ऐसी आबादी
जिसमे नेता चुनने के लिए
पाँच साल का इंतज़ार नही करना पड़ता
हर काम के अंजाम के बाद
नेता रहता है या नही रहता ....तय करना आसान हो

एक ऐसी आबादी
जिसमे
हर आदमी को पता हो
कि किसकी जायज भूख को
पूरा होना है कब


एक ऐसी आबादी
जिसमे आदमी को "आबादी " न कहा जाए

घर ही नहीं
रोज़ झाडू पोंछा लगाना चाहिए
अक्ल के तहखानों में

जरा मुश्किल है
क्यों कि हर दिन
हम बे खबर होते हैं
रात आती है aन्धेरा होता है
और
रोज़ बन जाते है
नए तहखाने

रोज़ ८ - १० घंटे घर के बाहर भी बिताना जरूरी है
कि हमें खबर रहे
अब हम पत्थर के जन्म को
पार कर आये हैं
और चल फिर सकतें हैं
चाँद तक

हर घडी याद रहना चाहिए
कि हम जिन्दा है
आदमी हैं
और होश रखते है

और खुदा आकाश में ही नहीं
हमारी जड़ों में भी है

बुलले जी की नई लाइंस २७-१०-a

"Chal Vaey Bulleya othae challeeya…jithae sarae annae, na koi saadee zaat paehchannae, thae na koi sanu mannae।"

The English transtaion of these lines are :

“Let us go Bulley to that pure place, where everyone is blind। Where no recognizes my caste or creed and thus no one will praise me for it!”

हिन्दी अनुवाद है
चल ओये बुल्ले वहां चलें
जहाँ सभी अंधे हों
जहाँ कोई भी हमारी जात न पहचाने
न हमें भला बुरा कहे (माने या ना माने)

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अकेले इश्क कमाना मुश्किल
किसी को यार बनाना मुश्किल
प्यार प्यार तो हर कोई बोले
कर के प्यार निभाना मुश्किल
हर कोई दुखी पे हंस लेता है
किसी का दर्द बंटाना मुश्किल
बातों से ही काम न बनता
जोगी वेश बनाना मुश्किल
कोई किसी की बात नहीं सुनता
लोगों को समझाना मुश्किल
- बाबा बुल्लेशाह जी

बुल्ले क्या जानू में कौन ?

बुलले क्या जानू मैं कौन हूँ?

बुल्ले शाह ख़ुद से पूछ रहें हैं -मैं कौन हूँ?


मैं मस्जिद में आराधना करने वाला मुसलमान हूँ

न मैं उन रीति रिवाजों में हूँ जो इश्वर के नाम पर संपन्न कि जाती हैं

न मैं पवित्र कही जाने वाली

न मैं अपवित्र कही जाने वाली बातों में हूँ

न मैं मूसा कहा जाने वाला पैगम्बर ही फेरोंन कहा जाने वाला राजा हूँ


बुल्ले! क्या जानू मैं कौन हूँ?


न में वेद कही जाने वाली किताबों में हूं

न भांग और शराब के नशों में हूँ

न शराबियों बदचलन लोगों द्वारा लिए जाने वाले मजों में हूँ

ना में जागा हुआ न में सोया हुआ हूँ


बुल्ले! क्या जानू मैं कौन हूँ?


न में खुशी में हु न में गम में हूँ

बढ़िया और घटिया बातों में हूँ

न पानी और न ही जमीन

न ही आग और ही हवा मेरे जनम स्थान हैं

अर्थात में पंचतत्वों से परे हूँ


बुल्ले! क्या जानू मैं कौन हूँ?


न में अरबी हु न लाहोरी हूँ

न में हिन्दी नागौर शहर का रहने वाला हु

न हिंदू, न पेशावरी तुर्क हूँ

न में नादौन में रहता हूँ

अर्थात में आदमी के ज्ञान से भी परे हूँ

न में अचल हूँ, न में गति मान हूँ


बुल्ले! क्या जानू मैं कौन हूँ?


आखिरकार बुल्लेशाह कहते हैं की

आखिरकार या क्या ही जानना पङता है

कि में ही पहला और आखिरी हूँ

में ही सर्वोपरि हूँ

किसी अन्य के रूप में मुझे नही पहचाना जाता

मुझसे सयाना और कोई नही

और में अकेला ही सर्वत्र व्याप्त हूँ



Bulleh! ki jaana maen kaun
Bulleh! to me, I am not known

Na maen momin vich maseet aan
Na maen vich kufar diyan reet aan
Na maen paakaan vich paleet aan
Na maen moosa na pharaun.
Bulleh! ki jaana maen kaun

Na maen andar ved kitaab aan,
Na vich bhangaan na sharaab aan
Na vich rindaan masat kharaab aan
Na vich jaagan na vich saun.
Bulleh! ki jaana maen kaun.

Na vich shaadi na ghamnaaki
Na maen vich paleeti paaki
Na maen aabi na maen khaki
Na maen aatish na maen paun
Bulleh!, ki jaana maen kaun

Na maen arabi na lahori
Na maen hindi shehar nagauri
Na hindu na turak peshawri
Na maen rehnda vich nadaun
Bulla, ki jaana maen kaun

Na maen bheth mazhab da paaya
Ne maen aadam havva jaaya
Na maen apna naam dharaaya
Na vich baitthan na vich bhaun
Bulleh , ki jaana maen kaun

Avval aakhir aap nu jaana
Na koi dooja hor pehchaana
Maethon hor na koi siyaana
Bulla! ooh khadda hai kaun
Bulla, ki jaana maen kaun

English Translation
Not a believer inside the mosque am I
Nor a pagan disciple of false rites
Not the pure amongst the impure
Neither Moses, nor the Pharoh
Bulleh! to me, I am not known

Not in the holy Vedas,
am INor in opium, neither in wine
Not in the drunkard’s intoxicated craze
Niether awake, nor in a sleeping daze
Bulleh! to me, I am not known

In happiness nor in sorrow,
am INeither clean, nor a filthy mire
Not from water, nor from earth
Neither fire, nor from air, is my birth
Bulleh! to me, I am not known

Not an Arab, nor Lahori
Neither Hindi, nor Nagauri Hindu, Turk (Muslim),
nor PeshawariNor do I live in Nadaun
Bulleh! to me, I am not known

Secrets of religion,
I have not known From Adam and Eve,
I am not bornI am not the name I assume
Not in stillness, nor on the move
Bulleh! to me, I am not known

I am the first, I am the last
None other, have I ever known
I am the wisest of them all
Bulleh! do I stand alone?
Bulleh! to me, I am not known