शीषर्क न दो
रहने दो वर्तमान को वर्तमान
न ढूंढो अतीत, भविष्य में कुछ समान
पियो पल-पल
किलकारियां मारती बहती नदी का जल
न बांधो अकाल को, न तोड़ो
बहती नदी के कूल न मोड़ो
छोड़ो राहों को उनकी राह पर
न पापरत होओ कुछ चाह कर
जियो अनिश्चितता को अज्ञात को
कौंधते सूरज स्याह रात को
न ढूंढो हल
है सच्चा ज्ञान
जो है, उसका वैसा का वैसा भान
पियो हर पल
अमृत मिले की गरल
अकाल में तैरते रहना
कुदरतन है सहज सरल
उम्मीद-ए-जिंदगी
Posted by
Rajeysha
on Monday 13 April 2009
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ये जो उम्मीद-ए-जिंदगी है, गहरी जमी है क्या करूं?
समझाया दिल को सब सही है, पर कुछ कमी है, क्या करूं?
चलती सांसें शोर हैं, सब ओर सन्नाटों के शहर
आती नहीं वह भोर, किसका जोर, हाय क्या करूं?
इक झूठ-सा लगता है, रहना जंगलों में ‘सोच’ के
सच्चाईयां जिद पे अड़ीं, मुश्किल बड़ी है क्या करूं?
कहना बुरा सा लगता है पर घुंपा है दिल तक ये छुरा
डर है और धड़कन बढ़ी है, क्या घड़ी है? क्या करूं?
समझाया दिल को सब सही है, पर कुछ कमी है, क्या करूं?
चलती सांसें शोर हैं, सब ओर सन्नाटों के शहर
आती नहीं वह भोर, किसका जोर, हाय क्या करूं?
इक झूठ-सा लगता है, रहना जंगलों में ‘सोच’ के
सच्चाईयां जिद पे अड़ीं, मुश्किल बड़ी है क्या करूं?
कहना बुरा सा लगता है पर घुंपा है दिल तक ये छुरा
डर है और धड़कन बढ़ी है, क्या घड़ी है? क्या करूं?