कुछ नहीं सूझता


कुछ नहीं सूझता

लोगों से सुना है
आदमी हवा से पैदा नहीं होता
तो जरूर रहे होंगे
इस जिस्म को आकार देने वाले भी

पर अब
जबकि वो भी नहीं रहा
जिसने मेरे जिस्म को
7 वर्ष तक पाला
भूख-बीमारियों में संभाला
कुछ नहीं सूझता
?
रोज आसमान पर चढ़, सूरज डराता है
रोज पंजों में भींच लेती रात, कंपा जाती है

लाखें इंसानों की भीड़ में
कोई भी नहीं है जिससे उम्मीद कर सकूं
बता सकूं
अबूझ सा.... इन सांसों का चलना

बस निपट अकेला मेरा होना
और जाने क्या?
क्या ये दुख है?
और क्या हैं ये सिसकियाँ
क्यों अकेला छोड़ दिया गया है मुझे
सूनी वीरान जगहों ...जंगलों के बीच

क्यों जीना है मुझे इसी तरह?
कब तक?

हैरान हूँ अपनी साँसों पर
अभी तो कुछ भी नहीं जानता
कि किससे मिलना है कैसे
क्या बोलना है किससे
किसकी क्या सुननी है
अभी तो मेरे होठों के पास
बहुत से खयाल जाहिर करने के लिए
कोई इशारा नहीं है

मेरा होना क्या है?
मेरा होना क्यों है?

कुछ नहीं सूझता

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