निहायत आदते हैं, वक्त सी बदल जाने की जरूरत है

सदियों की रंजिशों को पल में भुलाने की जरूरत है
इंसानियत के हुनर को फिर से आजमाने की जरूरत है
बहुत हुए काबे में हज, बहुत हुए काशी में बड़े बड़े यज्ञ
हर हिन्दू को काबे में झुकने, हर मुस्लिम को गंगा नहाने की जरूरत है
न उसे ईसाई में बदलो, न बदलो हिन्दु मुस्लिम में
एक इंसान को इंसान सा खिल जाने की जरूरत है
बदलो गुरूद्वारे मंदिरों को, बदल दो मस्जिदों चर्चों को
शहर में लाखों इंसानों को ठिकाने की जरूरत है
हाथ की छोटी बड़ी उंगलियों से कुछ जुदा काम हैं उसके
मन के छोटे झरोखे से कुछ बड़ा दिखाने की जरूरत है
ये जो फर्क से दिखते हैं तेरे मेरे जीने में
निहायत आदते हैं,वक्त सी बदल जाने की जरूरत है

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अपनी आँखों से देखा सुना ही सत्य नहीं होता

राम निरंजन न्यारा रे! अंजन सकल पसारा रे।।
अंजन उत्पत्ति वो ऊँकार। अंजन मांडया सब बिस्तार।।
अंजन ब्रह्मा शंकर इंद्र। अंजन गोपियों संग गोबिन्द।।
अंजन वाणी अंजन वेद। अंजन कीया नाना भेद।।
अंजन विद्या-पाठ-पुराण। अंजन फोकट कथहि ज्ञान।।
अंजन पाती अंजन देव। अंजन की करै अंजन सेव।।
अंजन नाचै अंजन गावे। अंजन भेष अनंत दिखावै।।
अंजन कहौं कहां लग केता। दान पुनि तप तीरथ जेता
कहै कबीर कोई बिरला जागै। अंजन छाड़ि निरंजन लागै।
अंजन आवै अंजन जाई। निरंजन सब घटि रह्यो समाई।।
जोग ध्यान तप सबै बिकार। कहै कबीर मेरे राम आधार।।

आँखों को दिखते दृश्य सा वो सब ओर फैला हुआ है, पर आँखों को न दिखने वाले उस अदृश्य की बातें ही न्यारी हैं। ऊँकार के रूप में उसका ही जन्म है और सारे दृश्य उसी का विस्तार हैं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र और गोपियों के संग नाचता हुआ गोविन्द भी वही है। वह वाणी और वेद ज्ञान के रूप में प्रकट है। और चूंकि वह दिखता है इसलिए ज्ञान कई तरह के भेद भिन्नताओं को पैदा करता है। दृश्य ही वेदपुराणों, पुरानी किताबों, विद्या अध्ययन और नई पुरानी बातों को पढ़सुनकर फोकट में एक दूसरे को प्रभावित करने की कोशिश में लगा है। जो दिख रहा है वही देवता बनाता है और जो दिख रहा है वही अपनी रचनाओं - देवी देवताओं की सेवा करता है। वही नाचता और गाता है और अनन्त अनेकों रूप दिखाता है। दिखने वाला ही पूछता है कि ईश्वर कहां है, ईश्वर की खोज करता है। दिखने वाला ही बार-बार तप तीर्थों में जाकर दान पुण्य कार्यों में लगा रहता है। कबीर जी कहते हैं कि कोई विरला ही जागता है और दिखने वाली बातों को छोड़कर अदृश्य में प्रवृत्त होता है। जो दिखता है वो आता है और चला जाता है। जो नहीं दिखता, अदृश्य है - वो सब में समाया हुआ, न आता है न जाता है। योग ध्यान तप ये सब दोष हैं विकार हैं। और कबीर का वही अदृश्य राम आधार है।


दृश्य दिखने करने वाली बातों से ही आज की हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई वाली समस्याएं पैदा हुई हैं। मुसलमानियत की भी शुरूआत तो यहीं से होती है कि एक आदमी चुपचाप बैठा हुआ अपने अंदर कुछ पा जाता है, साथ वालों को यह कहता है कि बुत परस्त मन बनना। शायद उसकी मंशा हो कि जो दिख रहा है वहीं तक मत रूक जाना। तो बातें अलिखित मौखिक कहीं जाएं या लिखित में दी जाएं, जब गलत आदमी सामने बैठा हो तो गलत चीज ही फैलती हैं। बातों को किताब कुरान बनाया जाता है, जैसे वेद लिखे गये। शब्दों को सजाया जाता है, जैसे देवी देवताओं को सजाते हैं (कुरान की आयतों को सजाते हुए लिखना एक विशिष्ट कला है) मस्जिदों के विशिष्ट वास्तु ढांचे होते हैं, मंदिरों की तरह। यानि फिर वही बुतपरस्ती एक नये रूप में की जाती है। गुरूनानक जी विभिन्न साधु संतों की वाणी को जीवन में मार्गदर्शक बनाने को कहा - तो वाणियों का गान ही शुरू हो गया। एक नई दुकान खुल गई रागी जत्थे बन गये। ग्रंथों की पूजा शुरू हो गई। ग्रन्थ साहिब हो गये हलुए-खीर का भोग गं्रथों को ही लगने लगा। गुरूग्रन्थ साहिब में गुरूनानक ने जितने संतों की वाणियों को एकत्रित किया उसके बाद काम ही रूक गया। क्या उसके बाद साधु संत पैदा होने बंद हो गये? गुरूगं्रथ साहिब एक शैली थी- बुद्धपुरुषों की वाणियों को संकलित करने की। पर फिर सब ठहर गया। बुद्ध और महावीर ने भी मना किया था मूर्ति पूजा के लिए लेकिन जितनी भगवान बुद्ध की मूर्तियां दिखती हैं किसी देवी देवता की नहीं। महावीर की निर्दोष र्निवस्त्रता भी सम्प्रदाय बन गई। मूर्खता ये कि एक महावीर नंगे और एक सफेद कपड़ों में।
आदमी का मन अतीत ही है। तो वो आदमी या अन्य रूपों में नित नूतन नित्य हर क्षण परमात्मा के ताजा नये रूप में हर क्षण खिले पुष्प को देख समझ ही नहीं पाता, या समझना ही नहीं चाहता। समझने में असुविधा ये है कि झुंड के अहंकार का आनंद नहीं मिल पाता। क्योंकि धर्म परमात्मा ईश्वर सर्वप्रथम नितांत वैयक्तिक चीज है अपनी आत्मा की अदृश्यता में फूटी कोंपल सी जो समाज, और धरती ग्रह और सारे ब्रह्माण्ड तक फैलती है।
सम्प्रदाय में तुरंत झंुड की ताकत महसूस होती है एक हिन्दू का अहंकार टूटता है तो सौ हिन्दु इकट्ठा हो जाते हैं एक मुसलमान को गाली दो दंगे हो जाते हैं। तो शक्ति को इस तरह विकृत निकृष्ट रूप में महसूस करने का ढंग हैं सम्प्रदाय, हिन्दू मुस्लिमों के झुण्ड। आदमी अपनी आदिम प्रकृति के अनुसार झुण्डों में रहता है। प्रकृति वही आदिम है पर अब पढ़ा लिखा आदमी है। सब नये तरीके से करता है - हिन्दू संगठन हैं, मुस्लिम संगठन हैं लड़ने मरने के नये हथियार और नयी जगहें हैं शहर हैं। परमाणु बम है। न्यूयार्क की तनी इमारते हैं ताज होटल हैं।
धर्म जीवन की बहती हुई नदी है। लेकिन क्या आदमी कुंए के मेंढ़क सा रहना नहीं चाहता? तो फिर क्यों कुंए बनाता है - एक हिन्दुत्व का कुंआ, एक मुसलमानियत, एक ईसाईओं का कुंआ, एक सिखों का कुंआ। इनमें सब तय होता है कि किसने क्या कह दिया और उसे क्या मानना है। कि कब हंसना है रोना है। कब कौन सी जन्मतिथि या मरण तिथि किस ढंग से मनानी है। कौन से भजन गाने कव्वालियां नये नये अंदाज में गानी हैं और उनके अर्थ समझने की कोशिश कभी नहीं करनी है। तुलसीदास की रामायण को पागलों की तरह चीख-चीख कर गाते शोर फैलाते देखा जा सकता है। प्रतियोगिता होती है कि इतने दोहे इतने घंटों में खत्म कर देने हैं कई माहिर जत्थे हैं। आराम से पवित्र दिन संडे को या किसी भी रात को किसी भी मोहल्ले को वैध ढंग से परेशान किया जा सकता है। हद है दीपावली के पटाखों का धुंआ - अस्थमा के रोगियों को मर जाना चाहिए या हिन्दुस्तान से बाहर चले जाना चाहिए दीपावली के दिन। क्या यही तरक्की है- धुआं रहित पटाखे नहीं बनाये जा सकते, आयुर्वेदिक रंग नहीं बन सकते। होली के रासायनिक रंगो की जलन मुझे साल में एक और दिन घर मंे बंद रहने को कहती है और रंगों के एक त्यौहार में खुश रहने से मरहूम करती है। अब भी मुर्हरम को मातम बनाने, खुल्लम खुला रोना पीटना क्या पागलपन है। जीसस को क्रूस पर चढ़ने में हुए दर्द का पता नहीं पर टीवी पर देखो सुनोे कई आदमी खुद हर साल क्रूस पर चढा़ते हैं, इसमें क्या मजा है? मजा वही है भीड़ आपको, अहंकार को पोषित करती है। आज भी आदिम प्रवृत्तियां काम कर रही हैं। बामियान में बुद्ध की प्रतिमाएं तोड़ दी गईं। अमरीकी सैनिकों ने बंदी ईराकी सैनिकों को कौन सी यातनाएं थीं जो नहीं दी? कौन सा पैशाचिक आनंद उन्होंने नहीं लिया? बुश पर जूता पड़ा और खिसियाहट में छद्म सभ्य वाक्यों से माहौल को हल्का करने की, अपनी आदिम प्रकृति को दबाने की कोशिश की। माहौल तो ऐसे हल्का होता कि बुश अपने अंगरक्षकों को मना कर उस पत्रकार की जूतमपैजार का जवाब खुद उस पर जूते फेंक कर, सहज अपने मुंह से निकली गालियां बक कर देते। इससे ये तो साबित होता कि बुश नाम का एक सरल सहज-सा आदिम मानव तो उनमें जिंदा है, जिसके सभ्य होने की गंुजाइशें हैं। पर पुलसियों से उस पत्रकार की बाहें और अंतड़ियां तुड़वा बुश ने साबित किया कि वो वही आधुनिक युग के आदिम मानव हैं जिसकी बर्बरता युगों के साथ बढ़ती गई है।
धर्मनिरपेक्षता एक निरर्थक शब्द है। सब धर्म सापेक्ष हो रहा है हिन्दू बिल, मुस्लिम बिल, अल्पसंख्यकों के विशेष कानून लिखित में हैं। साम्प्रदायिकता को कानूनसम्मत, लिखित में जोर शोर से बढ़ावा दिया, पाला पोसा जा रहा है। कानूनसम्मत सिमी, विश्वहिन्दू परिषद की तरह सिख, जैन, ईसाई सभी सम्प्रदायों के सभी तरह के सक्रिय संगठन हैं। सर्वधर्म समितियां दंगों के बाद फैले धुंए सी नजर आती हैं। आपका धर्म कुंए का कीचढ़ है और सर्वधर्म का मतलब चार पांच कुओं का कीचढ़ एक कर दो तो क्या वो साबर बन जायेगा, नदी के बहते पानी सा पवित्र हो जायेगा? एक गलती किसी को सदियों तक दबाया कुचला, कमजोर बनाया। दूसरी गलती आरक्षण की बैसाखी दे दी। क्या इससे दबे कुचले लोग अपने पांव पर चलना सीख जायेंगे, ताकतवर हो जायेंगे।

कबीर के निरंजन राम को समझने की बहुत जरूरत है। नितांत वैयक्तिक, धर्म के विशुद्ध अदृश्य रूप को सर्वप्रथम खुद में महसूस करने और उसके अंकुरित-पुष्पित-पल्लवित स्वरूप, उसकी सुगंध को प्रत्येक जड़ चेतन की आत्मा तक ले जाने की जरूरत है। ‘जो दिख रहा है’ उसके सच को ‘जो नहीं दिख रहा’ उसके द्वारा समझने की जरूरत है।
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