Monday, 13 April 2009

उम्मीद-ए-जिंदगी

ये जो उम्मीद-ए-जिंदगी है, गहरी जमी है क्या करूं?
समझाया दिल को सब सही है, पर कुछ कमी है, क्या करूं?
चलती सांसें शोर हैं, सब ओर सन्नाटों के शहर
आती नहीं वह भोर, किसका जोर, हाय क्या करूं?
इक झूठ-सा लगता है, रहना जंगलों में ‘सोच’ के
सच्चाईयां जिद पे अड़ीं, मुश्किल बड़ी है क्या करूं?
कहना बुरा सा लगता है पर घुंपा है दिल तक ये छुरा
डर है और धड़कन बढ़ी है, क्या घड़ी है? क्या करूं?

No comments:

Post a Comment