खुद से ही अजनबी
पूछता हूँ दूजों से
जानना चाहता हूं दूजों से
कि मैं कौन हूं
और मैं ढूंढता हूं
लोगों के जवाबों मेें
कि मैं क्या हूं
मैं खुद से क्यों नहीं मिल लेता
आमने सामने
क्यों मैं बुनता हूं खुद ही
खुद से दुराव-छुपाव
क्यों किये जाते हैं ....
मिलने के लिए
किसी खुदा....
बिचैलियों, ख्यालों, सपनों के बहाने
क्यों हूं मैं,
अपनी ही आशाओं इच्छाओं का गुलाम?
क्यों बांध लिया है
मैंने खुद को
दूजों के छोड़े, दिये रस्सों से
क्यों खरीद ली हैं मैंनंे
अपनी लिये भांति भांति की जंजीरे
क्यों मुझे पता ही नहीं चलतीं
पिंजरे की सीमाएं
क्यों नहीं सूझता
बेड़ियों का भार
क्यों मेरे पंख
वक्त के गुलाम हो गये
क्यों परिधियों, व्यासों, त्रिज्याओं का गणित
मौत तक घसीटे ले जा रहा है
क्या मेरे सारे प्रश्न
दूजों के पढ़े हुए
कृत्रिम हैं
कविता हैं मनोरंजन हैं
खुद से छलावा हैं
या प्रश्नहीन है मेरी चेतना की धरती
आलस्य उन्माद का रेगिस्तान
खा चुका है मुझ बीज की संभावनाएं