फर्क तो पड़ता है
हो सकता है जीते हुए हमें
निरे आदमियों के बीच रहना पड़े
हो सकता है हम सांसें लें
इंसानों के बीच
हो सकता है हम
बेहतर इंसानों के बीच रहें
जरा-सा..खुद की तरफ.. या,
खुदा की तरफ भी बढ़ें
फर्क तो पड़ता है
आदमियों को भी,
इंसानों को भी,
बेहतर इंसानों को भी,
और खुद हमें भी
कबीरे ने कहा था
कि मेरे मरने पर
मोहल्ले वाले तेरहवीं तक मुझे याद रखेंगें या, मृत्युभोज तक
बीवी कुछ बरस...और
माँ-पिता कुछ बरस और
पर यदि मैं जिंदा रहूं
तो फर्क तो पड़ता है
उन्हें भी,
मुझे भी...
फर्क तो पड़ता है
मैं सांसें खुलकर और आसानी से ले सकता हूँ
गीत भी गुनगुना सकता हँू
देख सकता हूं
पहरों का बीतना बातों ही बातों में
काली रातों को गुजार सकता हूं
चांदनी के झांसे में
कल...
आने वाली सुबह का इंतजार भी कर सकता हूं...मस्ती में
बेशक उम्र से दिन-दिन
पत्ते पत्ते सा झड़ता है
फर्क तो पड़ता है...
मेरे हर रिश्ते को
यदि मेरे पास खुशी होगी
तो कहां नहीं पहुंचेगी उसकी खुशबू
और मेरा दुख
कितना मुझ तक रह पाएगा
सड़ांध को कहां छिपा लूंगा मैं
फर्क तो पड़ता है
कुछ मिला हुआ खो जाए तो
लाख ...बहुत कुछ मिल जाने पर भी
क्योंकि वो एक बार ही बनाता है
तुम्हें भी,
मुझे भी, किसी को भी
तो...फर्क तो पड़ता है
किसी के नहीं जाने पर
किसी के चले जाने पर