Sunday, 21 December 2008

निहायत आदते हैं, वक्त सी बदल जाने की जरूरत है

सदियों की रंजिशों को पल में भुलाने की जरूरत है
इंसानियत के हुनर को फिर से आजमाने की जरूरत है
बहुत हुए काबे में हज, बहुत हुए काशी में बड़े बड़े यज्ञ
हर हिन्दू को काबे में झुकने, हर मुस्लिम को गंगा नहाने की जरूरत है
न उसे ईसाई में बदलो, न बदलो हिन्दु मुस्लिम में
एक इंसान को इंसान सा खिल जाने की जरूरत है
बदलो गुरूद्वारे मंदिरों को, बदल दो मस्जिदों चर्चों को
शहर में लाखों इंसानों को ठिकाने की जरूरत है
हाथ की छोटी बड़ी उंगलियों से कुछ जुदा काम हैं उसके
मन के छोटे झरोखे से कुछ बड़ा दिखाने की जरूरत है
ये जो फर्क से दिखते हैं तेरे मेरे जीने में
निहायत आदते हैं,वक्त सी बदल जाने की जरूरत है

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

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